Monday 1 August 2011

भूली बिसरी यादें



लो आज पुरानी यादों ने
फिर आ घेरा..........
हम जिनसे आँख बचाए
अब तक चला किए....
बेखौफ लडकपन के साथी
तेरे संग संग .......
अनगिन सपनों को साथ लिए
जब फिरा किए......
हम उम्र के लम्बे रस्ते
तय करके आए...
पर वहीं कहीं मन अपना
छोड चले आए....
वह डगर कि- जिसपर
बाँहें थाम के चलते थे...
तब पाँव जमीं पर कहाँ
हमारे पडते थे....??
मिट्टी के खेल खिलौने
और वो नदी किनारा
पानी में छप छप कैसे
हम कूदा करते थे......
उन नन्ही बूदों में भी
कितना सुख था..
तन से ज्यादा मन अपना
भींगा करता था....
वो पँछी तुम जिन्हें पुचकार
बुलाते थे.......
हम कंकर फेंक उडना
उनका देखा करते थे... 
वो बाग बगीचे जिनमे
बस खोए खोए
कितनी शामें कितने दिन
संग गुजारे थे....
तब जेठ दुपहरी की तीखी
किरणों में सुख था...
सावन भादो की रिमझिम
बूंदों में सुख था.....
मन के भीतर जो सुख की
सौगातें थीं........
सब की सब दिन रात
बरसती रहती थीं....
था अपना प्यार भी
खुले गगन सा खुला खुला
थी अपनी इच्छाएँ ..
माटी सी सोंधी......
बचपन के सुंदर सपनों से
दिन थे अपने
परियों की सुखद कहानी सी
रातें अपनी......
अब.....
वन उपवन से दूर
मशीनी राहों पर.
हर दिन हर पल
आगे बढते जाते...
पर मन के एक कोने में
दब कर सिसक रहीं
अब तक वो
भूली बिसरी कमसिन यादें...
और जहाँ कहीं
एक पल भी मिला खाली खाली
चुपचाप खिसक लेता है
मन उन राहों पर...
छू छू कर पेडों पत्तों को
खामोशी से ...
संदेश फिजाओं को अपना
देकर आता है...
जाने किस मोड पर
तुम फिर मिल जाओ
उसी शिद्दत से दोस्त..!
तुम्हें ढूंढा करता है........!!
                          
                            

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