Friday 26 August 2011

क्या करे क्या न करे



इहलोक में आता है
जब आदमी
क्या होता है उसके पास
निर्मल ह्र्दय ,पवित्र आत्मा
स्वछंद मन,प्रखर चेतना
कंचन काया,सलोना रूप
साथ में होती है गले में पडी
नवरत्नों की लडी……
सत्य ,धर्म, दया, प्रेम
श्रद्धा, क्षमा, करुणा, अनंत शक्ति,
अनन्य भक्ति…और इन सबकी दीप्ति
नवजात के भाल पर
झलकती होती है…

चलते चलते पूरा होता है
सफ़र इहलोक का
और वापसी यात्रा पर
निकल पडता है प्राणी
तब न तो उसके धन ऐश्वर्य की
न सुख वैभव की
न ग्रह संपत्ति की
न जन परिजन की गिनती होती है
न ही जरूरत होती है
सब के सब रह जाते हैं यहीं…

प्रवेश द्वार पर
परलोक में,
दिव्य ज्योति में मिलने को
बढती हुई प्राण शिखा को
रोकता है स्रष्टि का एक अमर विधान………
गिनता है एक एक मोती
परखता है उनकी चमक
जांचता है खरापन उनका
कितने भूल गए,
कितने बिखरे राह में
कितनों की चमक चुक गई
और कितने दुगुने होकर आए हैं
यात्रा की समाप्ति पर
आदमी के साथ
सफ़र तय करते करते………

सो, आदमी इतना करे
हर आदमी बस इतना ही करे
कि काया रहे न रहे
सुख वैभव मिले न मिले
ग्रह संपत्ति बने न बने
गले में पडी मोतियों की लडी
न टूटे , न बिखरे ,
न धूमिल हो चमक उनकी
रहें सब ज्यों की त्यों
जैसा लेकर आया था,इहलोक में
जैसा उसने पाया था प्रारब्ध से
इहलोक में आते समय परलोक से…………।


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