Tuesday 31 January 2012

सिखा दो


बहुत चल चुके अपने
कदमों को साधे
बचपन के जैसे
फुदकना सिखा दो…

कुछ गाते हुए
गुनगुनाते हुए
लेके हाथों में हाथ
हमको चलना सिखा दो…

पांव ऐसे धरा पर
रखें आज हम
बज उठे साज कोई
थिरकना सिखा दो…

कुछ भी करो
और कहीं ले चलो
आज खुद को ही खुद से
बिसरना सिखा दो…

उमंगों को मन की
तहों में सदा
एक सीपी के जैसे ही
रखना सिखा दो…

तुमको देखूं नजर भर
मगर दूर से
प्यार चातक सा मुझको
भी करना सिखा दो…

बहुत चल चुके
अपने ख्वाबो में सिमटे
हकीकत की धरती पे
चलना सिखा दो…


Wednesday 25 January 2012

माघ शुक्ल पंचमी


माघ शुक्ल पंचमी
वीणा वादिनी की वीणा
पहली बार झंकृत हुई
और नाद की पहली अनुगूंज
दिग दिगंतों तक बिखरी....
अक्षर झरे....
इसीलिए तो आज ही
शुरु किया जाता है
अक्षराभ्यास...
अनार की कलम से
रक्त चंदन की स्याही से कागज पर
स्लेट पर खड़िया से
जिह्वा पर शहद से...
 
अक्षरों से बनते हैं शब्द
और शब्दों में पिरोकर भावना
हम अभिव्यक्त होते हैं...
   
वीणा के तारों से
झरते हैं सरगम के स्वर भी
जिनसे संगीतमय होती है
सारी धरा.....
          
सोचती हूं ये अक्षर न होते
तो....
ये शब्द न होते
ये बातें भी न होतीं
...........
प्रकृति तो फिर भी बोल लेती है
अपने हाव भाव से,
पवन की गति में
धीमी या तेज चलकर
बादलों की गरज में
कड़ककर हुंकारकर
बिजली की चमक में
कौंधकर चिहुंककर..
और फूल पत्तों संग
हंस मुस्कुराकर.....
   
साँझ सुबह की लाली भी
बोल देती है
बात अपने मन की
रंगत बिखेरकर...
हम कैसे व्यक्त करते
वह सब ....
जो कहती रहती है
प्रकृति अनवरत...
उगती किरणों की प्रभाती
छिटकती लाली की प्रार्थना
चिड़ियों का चहकना..
मेघ का देश राग
मौसम का मल्हार ...
             
वन जीवों की दहाड़
जंगल का तपोमग्न मंत्रोच्चार...
मंदिर की घंटियों की टुनटुन
संध्या के पांवों की रुनझुन...
शंख की गूंजती आवाज
रात की लोरियां
झिंगुर की झांय झांय
और...
रात के मुसाफिर चांद
की खिलखिलाहट...
चांदनी ओढकर गुनगुनाती हुई रात
की मधुर स्वर लहरियां.....

शब्दों  की शक्ति
इसी दिन आई हमारी झोली में
जिनके सहारे हम
बोल सकते हैं
अपना मन खोल सकते हैं
जैसा देखते और सुनते हैं
प्रकृति से हर वक्त हर घडी

          
माघ शुक्ल पंचमी
चिरस्मरणीय ,
प्रात:वंदनीय वीणापाणि की आराधना का पावन मुहूर्त.....


Monday 23 January 2012

ये मेरी दुआ है


   
वक्त की शाख से
टूटते हैं लम्हे
टूटकर गिरते और
अंकित हो जाते हैं
इतिहास के पन्नों में
हर नन्हा लम्हा इतिहास रचता है…

सितारों भरे आसमान से
टूटकर गिरता है सितारा
गिरकर विलीन हो जाता है शून्य में
कहते हैं – जाते जाते भी
मन्नतें पूरी करता है…

आज मेरा भी मन हुआ
कुछ मन्नतें मांगूं
कुछ दुआयें भी
चली आई आंगन में,
देखूं कोई ऐसा सितारा
अनंत यात्रा पर जाता हुआ
और जाते जाते सौगातें बांटता हुआ

और विश्वास करो---
कई टूटते सितारे देखे मैंने
गिरकर विलीन होते अथाह में…
आंखें स्वत: मुंद गईं ,
मैने मांगा----

कि तुम्हारी राहें रौशनी से भरी हो
जिस दिशा जिस डगर में भी
रख दो कदम अपने…
कि तुम्हारी तमन्नाएं सदा
फूलें फलें ,निखरें
बिखरे तुम्हारा यश चहुं ओर
और पूरे हों सब सपने…

कभी जिन्दगी से कोई
शिकवा नहीं रहे
सब कुछ मिले तुम्हें कोई कमी न हो
खेले मुस्कुराहट
होठों पे अहर्निश
आंखों में पल भर भी कभी नमी न हो…

कि तुम्हारी चाहना जो मन में जनम ले
बिना शर्त बिना अवरोध के
उसे पूर्णता मिले…
मैं रहूं न रहूं, मेरी दुआएं
हरदम तुम्हारे साथ साथ चलें…

कि दिन तुम्हारे रौशन हों
खुशियों से, हंसी से
रातें सदा जीवन के जाम से भरी हो
मैं कहूं न कहूं दोस्त !
तुम्हारी हर यात्रा
शुभ ,सुखद और
सुकून के एहसास से भरी हो…।



Friday 20 January 2012

हेमन्ती शाम


हेमन्त ऋतु की एक सुंदर शाम
अचानक लगा
कहीं से घने घने बादल
जमीन पर उतर आए हों
धुंध सी छा गई
गहरा कुहासा भर गया सर्वत्र
बॉलकोनी में आई तो देखा
फूल पौधे सभी
जैसे कुहरों की चादर
ओढकर दुबके हुए हों..
मौसम बड़ा सुहाना लग रहा था
जी में आया बाहर घूम आऊँ....
तभी मैंने तुमसे पूछा ---
मौसम कैसा है.??
तुमने तपाक से कह दिया
बहुत खराब....
मैँ भौंचक्क रह गई...
सोचने लगी क्या हो गया तुम्हें..!!
इतना ही बोली--
क्या बात करते हो.?
हाथ पकड़कर घूमने वाला मौसम है
यही मौसम देखने तो हम
जाते हैं पहाड़ों पर...!!!
प्रकृति क्या सोचेगी भला..
जब भरी साँझ वह बूंदनियों जड़ी
ओढ़नी ओढ़कर निकली तो
हमने नजर भर देखा भी नहीं
उसे सराहा तक नहीं..
.
ऐसा नहीं करते दोस्त.!
सिंगार चाहे कोई भी करे
सराहना भरी नजर की इनायत होती है
और अब यह
शीत का मौसम तो
बस चार दिनों का मेहमान है,
हर सुबह सूरज
एक पल जल्दी आने लगेगा
शनै:शनै: ग्रीष्म अपने पाँव जमाने लगेगी
फिर कहाँ ये धुँध..
और ये
धुआँ धुआँ सी फिजां
सच कहूँ ---
अभी तुम पास होते तो
सैर करते देर तक
दूर तक ,बाँहें थामे ...
सारी खूबसूरती पी जाते हम
आँखों से ही
और मौसम का नरम स्पर्श
महसूस करते रग रग से....

सोचो जरा ऐसा रंग बदलता मौसम
होता है हर कहीं..?
कहीं कहीं तो
सालों भर जाड़ा ही रहता है
कहीं बस हर वक्त तीखी गरमी
कहीं वर्ष भर वर्षा का ही आलम रहता है
कितना ऊबता होगा मन ....??
यह तो हमारी खुशनसीबी है
कि हमारे हिस्से
शिशिर, हेमंत, बासंती बयार
सब कुछ आया
हमने प्रकृति से
गुनगुनी धूप
रिमझिमी फुहार
रूमानी साँझ ,रुपहली रात
सब कुछ पाया....


चलो न.!
अभी के अभी चाहता है मन
टहलना इस धुंध में
घूम आना दूर तक...
बेफिक्र अलमस्त
फिर कल यह मौसम रहे न रहे...

  

Thursday 19 January 2012

संगीत के स्वर


कोयलिया बोले अमवा की डाल पर…
कानों में रस घोलते-से
राग मालकौंस के स्वर,
मैं चौंक कर उठी
पलकों को धीरे-धीरे खोला
कहीं सपना हो और टूट जाए तो…
प्रात: काल का समय
राग भैरवी गाए जाने का समय
पर रियाज के लिए समय की
कोई बंदिश नहीं
कभी भी किसी भी वक्त
किया जा सकता…
ऐसे गायन तो एक विधा है
एक साधना
अपने अंतर में प्रवेश की
अपने अंत:करण की शुद्धि की…

फ्लैटों की दिनचर्या और
कैदखाने –सी जिन्दगी
एक चौकोर घेरे में बंद
क्या रात क्या दिन
क्या सुबह क्या शाम
मैं बालकोनी में निकल आई
चलो ! खुश होने का एक
नायाब बहाना मिला…

आवाज सामने वाले मकान से
आ रही थी
कोई छोटी बच्ची बडे ही मधुर कंठ से
गा रही थी…
याद आ गईं अमराईयां
मंजरियां ,पुरवाईयां
और पंचम स्वर की रानी
कोयल…
मैं छत पर चली आई
आस-पास नजर दौडाया
हैं न !आम का छोटा-सा बगीचा है पास में
तो ,कोयल की कूक भी मिलेगी
सुनने को…

और एक दिन
जब उस बच्ची ने
सुबह-सुबह राग भैरवी छेड दी
तो मेरा मन विकल हो उठा
यह मेरी पसंदीदा बंदिश है
श्याम संग मोरे लागे नयना……
मेरी उंगलियां हवा में ही थिरक उठीं
लडकपन याद आ गया

सुर लहरियां और
उनमें डूबते उतराते
झंकृत होते मन के तार-तार
बदली भरी रातों में गाए जाने वाले
राग…
पनघट के लिए अलग बंदिश
रुनझुन पायल बिछुओं के लिए
अलग…
होली,दीपावली पर्व त्योहारों
के लिए अलग अलग स्वर संयोजन

चांदनी रातों के अभिनन्दन
का अवसर हो
या कमल नयन की वन्दना करनी हो
षडज से लेकर निषाद तक
मोर,पपीहा,
बकरा,बगुला,कोयल,मेढक और
हाथी की अवाज से लिए गए
सातों स्वर
शुद्ध,कोमल और तीव्र
मिलकर हजारों राग रागिनियों की
रचना करते हैं जिनकी साधना
तीनों लोक चारों दिशाओं
सातों आसमान तक
गूंज उठती है
यह साधना मन को
पवित्र तो करती ही है
भक्ति के मार्ग भी प्रशस्त करती है
 
सुना है द्वारिकाधीश के जागरण के समय
राग भैरव गाया जाता था
जिनकी बंदिश आज भी
किसी को जगाने के लिए
गाई जाती हैं
जागो मोहन प्यारे…

बसंत का आगमन हो रहा
सुबह का वक्त है
कानों में कोयल की कूक
आ रही…
सामने के मकान से स्वर आ रहे
लगतार वातावरण में 
संगीत की मिठास घोल रहे
आने जाने वाले राहगीर
एकबार पलटकर देख रहे
ये कौन गा रहा
लागत मीठी मीठी बोलिया
बोलत अमवा की डाली
कोयलिया………………॥

साधना


सात सुरों की साधना
कहलाती है
गायिकी
रंगों की साधना करने वाला
कलाकार कहलाता है…

शस्त्रों की साधना
करने वाला
युद्ध कुशल है ,वीर है
शब्दों की साधना
जिसने कर ली
वह इतिहास रच जाता है…

तन की साधना
योग है
पर मन को साध लिया
तब यह मन
एक मंदिर बन जाता है…।



कुछ मत लिखना


खत लिखना
पर खत में कुछ मत लिखना
कि तुम्हारे खत का
आना ही बहुत है
किसी मजमून की
कोई जरूरत ही नहीं…

लिखोगे भी तो क्या
और पढूंगी भी
तो क्या…
न तो तुम ही लिख पाओगे
वह सब कुछ जो कहने को
शेष हैं अभी
न समझ पाऊंगी
मैं ही
कि क्या कह रहे हो तुम…?
कहो तुम कुछ भी
अब तो सुनूंगी वही मैं
जो दिल को दे सके
पुरसुकून एहसास
अब और किसी बात की
अहमियत ही नहीं…

रहने भी दो न
वह सब कुछ अनकहे
कि जिनके कह देने से
हो जाती हो उनकी
तासीर ही कुछ कम…
जन्मों की चाहना
शब्दों मे बांधो मत
कि खोल पाऊंगी नहीं
खत भी तुम्हारा
डर तो होगा न खुलते ही
तुम्हारे स्पर्श की खुशबू
उड जाए न कहीं………॥


तुम मिले तो जाना


तुम जब मिले तो जाना
कि गाती हैं किरणें
गुनगुनाती है धूप
और हवा तो आठों रागिनियां
संग लेकर ही
चलती है

कि नृत्य करते हैं सितारे
खिलखिलाती है
चांदनी……
और निहारता रहता है चांद
अपना रूप ताल तलैयों में
हर रात……

कि अंधेरा छेडता है
लम्बी तान
लोरियों की तासीर भरी
कि सो जाए सारी दुनिया
मीठी नींद
देखे सुख भरे सपने भी
पलक खुलने तक

कि हंसी झरती है झरनों से
कल-कल
और मुस्कुराती है नदियां अपनी
अल्हड चाल में
चलती अनवरत

कि उम्र एक सौगात है
खुशियों भरे जहान में,
जीवन से भरे 
दिन-रात ये
ये सुंदर सांझ-सबेरे

तुम मिले तो जाना
मैंने
मौसम के मायने
रुकते हैं पांव मेरे
दर्पण के सामने…॥

Wednesday 18 January 2012

नरगिस के फूल


तमन्ना थी कि देखूं कभी
फूल नर्गिस के…
सुना था बहुत कुछ मैंने
कि लम्बे अरसे पर खिलती है
किसी वीराने में
जहां कोई देख नहीं पाता उसे
उसकी बेदाग खूबसूरती
महसूस नहीं पाता खुशबू उसकी
इसलिए रहती है उदास वह्
सोचती थी कभी मिली तो पूछूंगी
उसके अंतर्मन की बात भी

और यह भी कि जब खिलती है
रूप इसका,गंध इसकी
वजूद इसका मोह लेता है
सारी कायनात को
बिछ बिछ जाती है
प्रकृति इसके रूप लावण्य पर
निसार करती रहती है अपना सर्वस्व ही

आंखें देख लें उसको तो फिर
देख नहीं सकता कुछ और
मन रम नहीं सकता कहीं और
ऐसा ही है इसका नूर
इसके रूप का सुरूर

लंबी यात्रा पर थी
दूर कहीं वीराने से खुशबू का
एक झोंका सा आया
जैसे बुला रहा हो कोई
दूर से आवाज देकर
प्रभात के सरगम सी मन को बांधती
खुशबू के तारों पर सवार
एक पुकार
गाडी रुकवाई ,उतरकर दौडती-सी
चल दी सुगंध की दिशा में
  
क्या देखती हूं
अप्रतिम सौंदर्य,
नैसर्गिक, प्राकृतिक ,निश्कलंक…
पलकें भूल गईं झपकना
ठहर गई आकर होठों पर एक
मुस्कान---कि यही तो हैं
फूल नर्गिस के
चिर वांछित,चिर प्रतीक्षित
और सच ही विश्वास हो आया
किसी की कही बात पर कि
मन में कोई चाह हो अगर
शिद्दत से जन्मी और अनवरत पलती
तो पूरी होगी ही होगी
         
इसे देखते ही समझ में गया
प्रकृति का रहस्यमय व्यवहार
क्यों छुपा कर रखती है इसे
क्यों खिलाती है इसे वीराने में
समय के लम्बे अन्तराल पर
इसकी गढन ,इसकी नाजुकमिजाजी
इसका वैभव
जैसे सारी उम्र की
तपस्या का फल हो कोई
जमीन का यह टुकडा जिसने जन्म दिया इसे
किसी मुनि के तपों का
आशीर्वाद ही प्राप्त होगा इसे तभी तो…
प्रकृति कर रही सिंगार यहां
छुपकर…।

और उसी तप के पुण्य स्वरूप खिली है
यह----
इतनी कोमल इतनी सुंदर ,
इतनी अद्भुत
इतनी उजागर…
मैंने पूछ ही तो लिया उससे
सुना है तुम रोती हो कि
तुम्हारा दीदार करने वाला
मिलता है मुश्किल से…
हंस पडी वो
कहने लगी---मैं तो खुशनसीब ठहरी
जो इस वीराने को सजाने का
हक मिला मुझे
सजती संवरती है प्रकृति मेरी ही छांव में
मैं होती रहती हूं भाव विभोर पल-पल…

और समझ में आती है
यह बात भी कि
क्यों छुपा कर रखती है सीपी
अपनी तहों में मोती को
पलकें अपनी परतों में आंखों को
और क्यों छुपा कर रखता है मन
अपने अनगिन भावों को,जज्बातों को
सात दीवारों के ,पांच परदों के भीतर
कि झांक न सकें
जुबां पर भी आ न सकें
जब तक हम न चाहें
स्रष्टि की अनमोल रचना
हम –मानव ,
पंचतत्व की काया में
निहित पुन:पुन:खिलने वाले नरगिस के फूल…॥