Sunday 30 December 2012

माँ रोती क्यों हो


पोंछती है आँसू
और पूछती है गुड़िया
माँ रोती क्यों हो...

अक्षर अक्षर बात तुम्हारी
मैंने मानी 
जैसा मुझे सिखाया तूने
मत डरना
हिम्मत से रहना
घुट्टी में मुझे पिलाया तूने ...
.
मैं मरकर
चिंगारी बनकर
हर दिल में जो  धधक रही हूं
भीतर भीतर ज्वाला बनकर
देखो कैसी सुलग रही हूँ ...

मौत मेरी 
हुंकारी बनकर
जन जन की आवाज बनेगी
मेरे जैसी हर बेटी तब
निर्भय होकर राज करेगी ... 

क्यों मेरी  तस्वीर गोद में 
लिए हुए 
तुम सुबक रही हो
मुख चुप हैं पर व्यथित 
हृदय से 
मन ही मन में कुंहक रही हो 

तुम जननी हो मेरी
ऐसे मत अधीर हो
फिर आऊँगी कोख तुम्हारे
अंसुयन नयन भिगोती क्यों हो
माँ रोती  क्यों हो........


   

साथ चलोगे न !


यह शारदीय धूप
शांत नील सरोवर
नर्म सफ़ेद रेत  का गलीचा....
हर तरफ हरियाली
पीले पीले फूलों से सजे
सरसों के खेत

पानी में तैरती छोटी छोटी नौकाएँ
कितना कहूँ कितना सुनाऊँ
यह सुख भरी
सुहानी भोर
रच बस गई जेहन में
उम्र भर के लिए ....

सबसे बढ़कर
सुकून भरा साथ तुम्हारा
और आँखों आँखों में
किया गया वादा
कि  निभाओगे
यह दोस्ती जीवन भर ....

मन में एक मिठास लिए
लौट आए हम
अब कहीं भी जायेंगे
ये अनमोल पल
अपने सहज सुखद एहसास के साथ
हाथ थामे चलेंगे
तुम भी साथ चलोगे न......
  

Saturday 29 December 2012

कोई तो राज है


सिमट गए शामियाने
किरणों के
सात घोड़ों के पदचाप गुम हो चले
संध्या आई
तो क्षितिज पर छुप कर बैठी धुंध
झमक कर उतर आई
कण कण मे बिखर पसर गई
ऐसी गहरी श्यामल शीतल
कि हाथ को हाथ नहीं सूझता
कोई बत्ती कोई रौशनी
कारगर नहीं
जैसे साँस थम गई प्रकृति की

चुप्पी सी व्याप रही
कोई आहट कोई शोर नहीं
गाडियाँ धीरे धीरे चल रहीं
रात सहमी सहमी सी लग रही
सोचती हूँ
इस धुंध के गहन आवरण में
कौन से रहस्य बुनती है प्रकृति
या कि
कौन से रहस्य सुलझाती है
कोई तो राज है .....  

कुछ अक्षर


उग आए कुछ अक्षर
कहीं भीतर  
कब बुन गए थे
कुछ याद नहीं
कब धूप मिली
कब बरखा
कुछ पता नहीं

कुछ स्वर ढूँढूँ,
कुछ वर्ण नए 
कि सजा सकूँ
और रच जाए कोई
कविता.....
जिसमें मन अपना
मैं पिरोके तुमको
सुना सकूँ ......

वह आज मिला


वह  
आज मिला
लंबे अरसे के बाद मिला

याद आया
पहली बार का मिलना
दिल का हरसिंगार सा खिलना ...

फिर
साथ साथ चलते चलना  
बात बात पर हँसते रहना

घण्टों धूप में बैठे रहना
एक दूजे में खोये रहना...

दिन लगते थे हल्के फुलके
जैसे  हों  रिश्ते जन्मों के...

हरी घास पर औंधे लेटे
या छत  की मुंडेर पे बैठे


जाने किस  आपाधापी में
राह जुदा हो गए हमारे
मन की बातें रह गईं मन में
और बिछड़ गए सपने सारे

आज अचानक मिला
तो खुशबू
भर गई मन की कलियों में
वह घूम रहा था तन्हा तन्हा  
फुलपरास की गलियों में..... 

यह धुंध



यह धुंध  
फिजाँ धुंधली
दिशाएँ धुआँ धुआँ
जैसे नरम लिहाफें ओढ़कर
मौसम खड़ा ....

ऐसे में तू आ
चल
हाथ पकड़ 
चल पड़ें कहीं

ना देखे हमें जमाना
ना हम देखें
बस नरम छुअन इस मौसम की
महसूस करें ...

न तू कुछ बोले 
न मैं कुछ बोलूँ 
बस सुनें स्पर्श की भाषा
यह धुंध हमें सिखलाए
एक मौन प्रेम परिभाषा........

   

बालकनी


चार दीवारों से घिरा मकान
न आँगन न बरामदा
दायें बाएँ ऊपर नीचे बस
घोसलों सरीखे मकान
एक कुंजी घुमाईए और खुल जा सिम सिम 
दाखिल हो जाईए अपने दरबे में...

शुरू शुरू में लगता था
पता नहीं हवा पर्याप्त मिले या न मिले
पर धीरे धीरे आदत हो गई
छोटी सी बालकनी तो जैसे
जान ही है फ्लैट की ...
यहीं बैठकर धूप हवा बारिश
सबसे मुखातिब होइए
छोटे गमलों में छोटे छोटे
फूल भी खिल जाएँगे
बेरोक टोक राहगीरों से बतियाएंगे

अम्मा की साग भाजी
बालकनी में ही चुनी बिनी जाती है
छोटे के होमवर्क भाभी यहीं बैठकर
करवाती है...
अख़बार वाला सीधा निशाना बांध कर
अख़बार पहुँचा देता है
सीढ़ियाँ चढ़ने के झंझट से बच जाता है
सबसे सहूलियत है यहाँ से बारात की
सज धज देखना
नाचते ठुमके लगाते बारातियों को
बेगानी शादी में दीवाना होते देखना

फुर्सत में हों तो तरह तरह के नजारे देखिए
देखिए तो सही जमाना
कितनी तेज रफ्तार से आगे भाग रहा
कोई भी पढ़निहार
बिना मोबाइल कान में लगाए
आता जाता दीख नहीं सकता
कोई भी वाहन बिना हौर्न बजाए नहीं गुजर सकता
चाहे आप सोएँ हों या जागे
ध्यान में हों या अनमने
हर गतिविधि से रू ब रू रहिए

रात को चाँद जब आपकी बालकनी  
में आकर मुस्कुराएगा
दिन भर के दुख दर्द एक पल में
दूर हो जाएँगे
अनगिनत सितारों का अकेला हीरो
रूप बदल बदल कर आयेगा
पर जब भी आयेगा
आपके कमरे में झाँकर जरूर देखेगा

कि आप
सुसज्जित फ्लैट में रहने वाले
सुलझे हुए विचार
और सुंदर दुनिया के रचयिता का
तहेदिल से आभार
मानते तो हैं न........

Monday 17 December 2012

क्या कहूं


इन वादियों में
तुम्हें देखा

भोर पलकें खुलने से लेकर
रात आंखें मूंदने तक
जिस कल्पना के ताने बाने बुनता
रहता है मन मेरा
क्या कहूं
स्वप्न चित्र की भांति
दीख जाता है वह सब कुछ
यदा कदा...
हरी भरी वादियों से होकर
जब गुजरी
दूर किसी नन्हें से बालक को देखा
एक हाथ से निकर संभाले
एक हाथ में किसी की
कटी हुई पतंग
लेकर भागता हुआ
भागकर सीधा मेरी बाहों में
पनाह लेता हुआ...
तुमने कहा था यह तुम्हारा शहर है
यहां की गलियां
तुम्हारे बचपन की निशानियों से भरी हैं
मैंने वही तो देखा..
.
उधर उस तालाब के पानी में
पांव डुबाकर बैठे हुये
एक हाथ में कमल की डंडी
दूसरे  से पानी उलीचते
मुस्कुरा रही हूं मैं
सचमुच नटखट
था बचपन तुम्हारा...

अक्सर कहते हो तुम
मैं पूर्ण पैकेज हूं
तुम्हारे लिए
कभी ममता लुटाती
कभी स्नेह से पुचकारती
कभी गले लगाकर
अशेष प्रेम बरसाती
मुझे भी यही लगता है
ऐसी ही हूं मैं
और ऐसे ही हो तुम भी
एक दोस्त , एक सखा
एक हमसफर
क्या नाम दूं तुम्हें
कि जब भीतर  उमड्ता
घुमड़ता भी है कुछ
तो ढूंढता है मन तुम्हें
ताकि सर रख सकूं तुम्हारे कंधे पर
तुम्हारी पुकार
तुम्हारा व्यवहार
जोड्ता जाता है
हृदय के तार
हर दिन हर पल
जैसे गुंथ जाते हैं पुष्प
एक धागे में.....  

फिरकनी


गली में 
छोटा सा लड़का

कागज की रंग बिरंगी फिरकनियां
बांस की लंबी सी डंडी में

खोंसकर फेरी लगा रहा...

नन्हें नन्हें बच्चे उसे घेरे चल रहे
मैंने आवाज दी 

तो आकर द्वार पर खड़ा हो गया

एक फिरकनी हाथ में लेकर देखा
अभी अभी तो सर्र सर्र नाच रही थी
अब क्या हुआ 

फिरकनी वाला देख रहा था
बोल पड़ा.....
हवा की दिशा देखकर रखें...

सोचती हूं
यह कच्ची उम्र का बालक
कितनी बड़ी बात कह गया

कोमल कागज की बेजान फिरकनी भी
तभी नाचती है 
जब हवा का रुख साथ दे
और हम 

विकसित विवेक के स्वामी
वक्त की धारा के विपरीत हाथ पांव मारते
और भाग्य को दोष देने से नहीं चूकते

नाहक अपनी ऊर्जा
अपनी शक्ति
अपना धैर्य दांव पर रखते हैं

यह जानकर भी कि
वक्त एक सा नहीं रहता

सदा बदलते रहना ही इसका धर्म है
थोड़ा सा धैर्य
थोड़ी सी सहन शक्ति
और संतोष रखकर
हम वक्त
के रुख का इंतजार कर लें
तो हमारे लक्ष्य की फिरकनी भी
नाचेगी ,
अद्भुत छ्टा बिखेरेगी........