Tuesday 28 July 2015

पतंग और डोर

बचपन के नन्हे कदमों के साथ
दौडती भागती यादों में से
एक मनचली याद अक्सर
आकर गुदगुदा देती है
खुले आसमान में कुलांचे भरती कोई पतंग
अचानक लुढकती हुई
नीचे आ रही
किसी ने पेंच मार दी
या हवा का दबाव नहीं झेल पाई
मौज ही हो गई
हम बच्चों की
हुर्रे…आगे पीछे…
जिधर जिधर कलाबाजियां
खाती हुई पतंग जा रही
उधर उधर
झाडी झंखाडों की क्या बिसात
यह लो किसी डाल ने हाथ बढाकार
लूट लिया

सभी शामिल हो जाते हैं इस खेल में
क्या मकान की छ्त्त
क्या पेड की ऊंची डाल
उस एक कटी फटी पतंग की शरारत
देखते ही बनती
जितना हाथ लफाओ
ऊपर ही ऊपर उठती

ऐसे में उसकी टूटी हुई डोर
मदद करती
उसे थामकर धीरे धीरे
उतारी जाती पतंग
क्या ही नाता होता होगा
डोर से पतंग का

अब सोचती हूं
एक के बगैर दूसरे का वजूद ही नहीं
बिन डोर जैसे पतंग उड नहीं सकती
बिन पतंग डोर भी किस काम की

यही डोर है
संबंधों की नातों रिश्तों की
प्यार मोहब्बत की
जो कुलांचे भरने देती है हमें
खुले आसमान में जितना चाहो
जिधर चाहो जब तक चाहो





खुशनसीब हूं मैं

किसी की नज्म थी
लिखने वाले ने लिखा था
उम्र बीत रही
कोई ऐसा मिला
जिसे बस याद करूं तो जाए
मुस्कान लबों पर

अपनी तरफ निहारने लगी मैं
दिल ने कहा
बहुत खुशनसीब हूं
हैं मेरी जिन्दगी की किताब में
कुछ पन्ने उस नाम के
जिन्हें पलट कर देखूं तो
खेल उठती है मुस्कान लबों पर

जिसे जब चाहे पुकार सकूं
जहां चाहे हाथ थामकर ले जाऊं
संग बैठकर बोलूं बतियाऊं
फुर्सत में
बस याद भी करूं तो
आ जाती है मुस्कान लबों पर

तन्हाईयां हों कि मेले हों
जमाने के
भींगती स्नेह की बारिश में रहती हूं
मिलती है धूप
प्यार की भी हरदम
अनबूझ नशे में खोई रहती हूं

दिल अपना खोलकर
रख देती हूं  जिसके आगे
सुन सकती हूं जिसको ताउम्र मैं

है ऐसी परछाईं मेरी काया की
संग लिपट के मुझसे
जो रहा करती है
ऐसा चेहरा
जो दीख जाता है
आईना जब भी निहार लेती हूं

बहुत खुशनसीब हूं मैं कि नज्म मेरी
उम्र के रस्ते से
खुशियों के फूल चुनती है

रोपती है कुछ बिरवे हरेक पडाव पर
हंसी बिखेरती चलती है
हां खुशनसीब हूं मैं



ऐ कवि

ऐ कवि
तुम्हारी सहज सी कल्पना
कि नव कोंपलों सा खिलूं
हवा के झोंकों में झूमूं झूलूं
और चुपचाप अल हो जाऊं डाली से
हर किसी के अन्तर्मन की अभिलाषा होगी
अपने मन में झांककर कह सकती हूं
यही चाहती हूं तहेदिल से
मैं भी
यह भी कि जब खिलूं
खुशबू बन पवन के संग संग
चहुं ओर बिखरूं
दिल की परत खोलकर निहारूं
छांव हो कि धूप  हंसूं मुस्कुराऊं……
ऐ सुकुमार कवि
मैं भी नहीं चाहती
कोई शोर कोई मनाही
जब समय आए
खिसक लूं आहिस्ते से
मिल जाऊं मिट्टी की नरमाई में
पुन: पुन: जीवन पाने को

नव कोंपल बन खिल जाने को