Sunday 25 August 2013

दोराहे पर खडा आदमी

दोराहे पर खडा आदमी सोचता है
किधर जा
कौन दिशा
नहीं जानता किधर है मंजिल उसकी
किधर है सही रास्ता
किससे पूछे कौन देगा सही मशवरा
उलझन में घिरा
ऊहापोह में पडा
पुकारता है दिशाओं को
पूछता है चांद सूरज सितारों से
कहां मिलता है कोई जबाब …

पर ज्यों ही
मायूस होकर
झांकता है अपने अंतर्मन में
मूंद कर आंखें ,
डूब कर आत्मा की गहराई में
पूछता है जबाब
उसी पल पा जाता है
लझनों से निजात
उसका भवितव्य
थाम कर उंगली ले जाता है
उस ओर जहां उसकी मंजिल
उसका इंतजार कर रही होती है
और यही सच है
दोराहे पर खडा आदमी
न भटके उलझनों के जाल में
विचलित न हो ऐसे चलते चलते राह में
होना वही है जो चाहता है
वह सर्व शक्तिमान
जो रचता रहता है पल पल का विधान्………।