Tuesday 22 December 2015

सर्वव्यापी


कुहासे की घनी चादर
मानों स्याह घूंघट कायनात का
एक कोने से जरा सा सरकाकर
झांक उठी किरणें
अहा ! अद्भुत
निगाह हटाने का जी नहीं होता
आंखों से पीता है मन
इस सुंदरता को
घूंट घूंट
थोडा थोडा सरकता जाता है ओढ्ना यह
जैसे ढलकता है घूंघट दुल्हन का
खुलता जाता है रूप
खिलती जाती है आभा
अहा ! अद्भुत
कोमल गुलाबी सुनहरा झालर
चमचम करता
मोहता है मन
सर्वव्यापी
तुम ही तो हो हर तरफ
और कौन होगा भला इतना मोहक
इतना गुरुत्व भरा
खिंचा जाता है सर्वस्व मेरा
अहर्निश ……………


वह स्नेह बहा भीतर भीतर

वह स्नेह बहा भीतर भीतर
कभी आंखों में कभी पलकों पर
रहा भिंगोता तन मन को
फिर जल बनकर

वह स्नेह बहा भीतर भीतर

इस स्नेह की अद्भुत है भाषा
अद्भुत है इसकी परिभाषा
जो रहे लुटाते आप सदा अंजुरी भरकर

वह स्नेह बहा भीतर भीतर

अब कितना किसे बतायें हम
और कैसे कहां छुपायें हम
जो आपसे हमने पाया है दामन भरकर

वह स्नेह बहा भीतर भीतर
कभी आंखों में कभी पलकों पर
रहा छलकता रग रग में
फिर जल बनकर

वह स्नेह बहा भीतर भीतर…………



अनुभूति

आंखें मून्द के सुनना तुम्हारा
मुझको
मेरी कविता को
एक अद्भुत एहसास से भर गया मुझे

मानों
पंच तत्व के इस शरीर का आकाश तत्व ही
भोर के गान की तरह
भर गया हो झंकार से

किरणों के म्रदुल गुन्जन और
पंछियों के कलरव से भरा भरा
पंखुडियों के खुलने की सरसराहट के
मधुर अंदाज से भर गया मुझे

मैंने महसूस किया अपनी ही कविता के
नरम स्पर्श को
शब्दों की मासूमियत और
स्वर के उतार चढाव को
सांसों की लय से एकाकार होते हुये
भीतर ही भीतर कुछ घुलने के
आभास से भर गया मुझे
तुम्हारा यूं आंखें मून्द कर
सुनना मुझको , मेरी कविता को……


Tuesday 28 July 2015

पतंग और डोर

बचपन के नन्हे कदमों के साथ
दौडती भागती यादों में से
एक मनचली याद अक्सर
आकर गुदगुदा देती है
खुले आसमान में कुलांचे भरती कोई पतंग
अचानक लुढकती हुई
नीचे आ रही
किसी ने पेंच मार दी
या हवा का दबाव नहीं झेल पाई
मौज ही हो गई
हम बच्चों की
हुर्रे…आगे पीछे…
जिधर जिधर कलाबाजियां
खाती हुई पतंग जा रही
उधर उधर
झाडी झंखाडों की क्या बिसात
यह लो किसी डाल ने हाथ बढाकार
लूट लिया

सभी शामिल हो जाते हैं इस खेल में
क्या मकान की छ्त्त
क्या पेड की ऊंची डाल
उस एक कटी फटी पतंग की शरारत
देखते ही बनती
जितना हाथ लफाओ
ऊपर ही ऊपर उठती

ऐसे में उसकी टूटी हुई डोर
मदद करती
उसे थामकर धीरे धीरे
उतारी जाती पतंग
क्या ही नाता होता होगा
डोर से पतंग का

अब सोचती हूं
एक के बगैर दूसरे का वजूद ही नहीं
बिन डोर जैसे पतंग उड नहीं सकती
बिन पतंग डोर भी किस काम की

यही डोर है
संबंधों की नातों रिश्तों की
प्यार मोहब्बत की
जो कुलांचे भरने देती है हमें
खुले आसमान में जितना चाहो
जिधर चाहो जब तक चाहो





खुशनसीब हूं मैं

किसी की नज्म थी
लिखने वाले ने लिखा था
उम्र बीत रही
कोई ऐसा मिला
जिसे बस याद करूं तो जाए
मुस्कान लबों पर

अपनी तरफ निहारने लगी मैं
दिल ने कहा
बहुत खुशनसीब हूं
हैं मेरी जिन्दगी की किताब में
कुछ पन्ने उस नाम के
जिन्हें पलट कर देखूं तो
खेल उठती है मुस्कान लबों पर

जिसे जब चाहे पुकार सकूं
जहां चाहे हाथ थामकर ले जाऊं
संग बैठकर बोलूं बतियाऊं
फुर्सत में
बस याद भी करूं तो
आ जाती है मुस्कान लबों पर

तन्हाईयां हों कि मेले हों
जमाने के
भींगती स्नेह की बारिश में रहती हूं
मिलती है धूप
प्यार की भी हरदम
अनबूझ नशे में खोई रहती हूं

दिल अपना खोलकर
रख देती हूं  जिसके आगे
सुन सकती हूं जिसको ताउम्र मैं

है ऐसी परछाईं मेरी काया की
संग लिपट के मुझसे
जो रहा करती है
ऐसा चेहरा
जो दीख जाता है
आईना जब भी निहार लेती हूं

बहुत खुशनसीब हूं मैं कि नज्म मेरी
उम्र के रस्ते से
खुशियों के फूल चुनती है

रोपती है कुछ बिरवे हरेक पडाव पर
हंसी बिखेरती चलती है
हां खुशनसीब हूं मैं