चली जा रही थी.
मैं राह अपनी,
पलकें झुकाए,
कुछ –बहुत तटस्थ सी
परिवेश से............
ठीक पाँवों के निकट
आकर गिरा
ज्यों पुष्प गुच्छ
ये भला किस देश से.....
चौंककर नजरें उठाई
दूर जाने किस
दिशा से,
वँशी की आवाज़ आई
एक झमाके से लगा
कोई मेघखंड
बरस पडा...
मुग्ध सी खोई रही मैं
भींगता तन-मन रहा.....
अब सोचती
यह क्या हुआ..??
किसने दी आवाज़, कि
मीठा मीठा दर्द सा
होने लगा....
ठीक दिल के आस-पास
भरी साँझ फैला
ये कैसा उजास....
तोड़ कर सीमाएँ सब
पुकारता है बार-बार
ये कौन आया आज मेरे मन के द्वार....॥
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