Monday 1 August 2011

इनके अगर जुबां होती


किस कारण सिंगार अनूठा
किए चली चंचल धारा.....
क्यों इतना विह्वल होकर
ये चलती रहती हैं दिन रात...
किससे मिलने को व्याकुल हो
पर्वत जंगल लाँघ चलीं
और कहाँ जाकर हो जातीं
उन्मत लहरें यूँ विश्रांत......
सागर से मिलने को आतुर
प्रीत भरे अंतर की बात
खुद ही अपना राज बताती
      नदियों के अगर जुबां होती...
काहे कांटों से बिंधकर भी
नाजुक कलियाँ यूँ मुस्कातीं
काहे खिल अपनी खुशबू से
सारी बगिया को महकाती...
फूलों पत्तों से ,तितली से
और बगिया के माली से
शाम ढले पँखुडिय़ॉं में
छुपे हुए भँवरे की बात....
सारे जग को स्वयं बताती
    कलियों के अगर जुबां होती...
काहे इतना उन्म होकर
तट से अपना सर टकराती
किससे मिलने की आशा में
तड़प तड़प कर ये रह जाती
दिनभर गुमसुम बाट जोहती
शाम ढले व्याकुल हो जाती
फिर रजनी के आते आते
काहे इतना शोर मचाती
और पूनम की रात गगन में
देख चाँद की प्यारी सूरत
जल में उसकी परछाईं को
लिपट लिपट कर गले लगाती
इनके मन की व्यथा समन्दर
कभी नहीं सह पाता....
अगर कभी ये हाल सुनाती..........
   लहरों के अगर जुबां होती...!
                              

1 comment:

  1. Kaash ki lahren aur kaliyan bhi iis kavita ko padh saktni.

    ReplyDelete