Monday 28 November 2011

सिर्फ़ तुम्हारे लिए


कह तो दिया तुमने
कि तुम्हें मैंने
खींचकर निकाल दिया है
उस सात दीवारों के बंद कमरे से
जहां कैद थी तुम्हारी
मुस्कुराहट…
तुम्हारा खुलापन
तुम्हारे सपने देखने की आदत
और्…
आज़ाद परिन्दे की तरह
मनचाही ड्गर,
मनचाही दिशा में
फ़डफ़डाकर उड जाने की चाहत…

कर भी लिया तुमने मुझसे वादा
कि भींगोगे बारिश की बूंदों में
महसूस करोगे गिरती बूंदों की
शीतल तपिश…
और फ़िसलते देखोगे उन्हें
अपने बदन पर आहिस्ता आहिस्ता…
और यह भी कहा कि
बटोरते  रहोगे  खुशियां
यहां से,वहां से
सृष्टि के चप्पे चप्पे से
अंजुलि भर भर कर
और बांटते रहोगे
उन्हें मुट्टी भर भर कर अनवरत……

जन्मों की प्यास जो थी
आत्मा में कैद
तुमने उसे भी मुक्त करने की
कोशिश की
दौडे चले आए
कई कई बाधाओं को रोकते
धकेलते…
जमाने की अनगिन निगाहों से
खुद को संभालते
और पा भी लिया मैंने
चंद लम्हों में
कितने ही सवालों के जबाब
तुम्हारी निश्छल निगाहों में
और उनके भी पार
पलकों की कोरों में छुपते
कुछ मोतियों में………
तुम्हारी उंगलियों के पोरों के
निर्मल स्पर्श में
तुम्हारी धीर गम्भीर आवाज़ की कशिश में
और शांत सौम्य व्यवहार में
मेरे सुदर्शन दोस्त…!
मुग्ध हो गयी मैं तो………

पर जब जब मैंने निगाहें उठाई
जाने क्यों ऐसा लगा
कि मेरे इतने करीब होकर भी
तुम कहीं दूर हो
तुम्हारे मन का कोई कोना
अछूता ही रहा
उसके बंद दरवाजे
खोल नहीं पाई मैं
अभी और भी ढूंढना है तुमको
तुममें ही………
देखना है मुझे तुम्हारा बीता हुआ कल
महसूस करना है दर्द उन पीडाओं का
जो गाहे बगाहे
टीसते हैं तुम्हारे ह्रदय में
मिटा देना है उनके
हल्के से हल्के निशान भी
और रोप देना है उनपर
अमर प्रेम की बेल
स्निग्ध प्यार की दूब…

देखना है मुझे तुम्हें
तुम्हारे चंचल ,वाचाल
निर्भीक उन्मुक्त रूप में
जो बात बेबात खिलखिला उठे
और झर उठे हंसी के फ़ूल
मुझे देखना है तुम्हें
बिल्कुल निर्झर की तरह झरते
कि गूंजे तुम्हारे कंठस्वर
दसो दिशाओं में
रंग और कूची तुम्हारी
उतारती रहे अनगिनत तस्वीर
वक्त के कैनवस पर………

और जब भी मिलो मुझसे
उसी बाल सुलभ अंदाज़ में
दौडकर,गले लगकर
जैसे बरसों पहले मिले थे
एक भींगी भींगी रात में
जब पकडकर बिजली का खंभा
गोल गोल घूमते रहे थे हम-तुम
और अचानक उल्टा घूमकर
तुमने भर लिया था मुझे बांहों में
और पल भर में मेरी आत्मा
निकलकर मेरे शरीर से
समा गई थी तुममें

उसी दिन की तरह
जब जाडे की गुनगुनी धूप में
मैदान की हरी घास पर
हाथ पकडकर बैठे रहे थे हम तुम
सुबह से शाम हो आई थी
झरते रहे थे फ़ूल हमारे माथे पर
मानों देता रहा हो आशीष
अपने अनगिन बाजुओं से
पास ही खडा गुलमोहर का पेड…
और खोए रहे थे हम तुम
एक अनबूझ नशे में

ठीक उसी शाम की तरह दोस्त…
जब सागर तट पर अकेले खडे
जाने किन खयालों में गुम थे तुम
कि अचानक मैंने तुम्हारे कंधे को छुआ था
चौंक से गए थे तुम
फ़िर जब मैंने
तुम्हारा हाथ धीरे से थाम लिया
चल पडे थे तुम मेरे साथ दूर तक
लहरों में धीरे धीरे
और शाम के गहराते ही
अचानक जाने क्या सूझी
तुमने डाल दी मेरे गले में बांहें
और निहारने लगे अपलक मेरी निगाहों में

वैसे ही साथी
ठीक वैसी ही कशिश
वैसी ही तपिश
वैसा ही प्यार वैसा ही उन्माद
देखना है मुझे तुममें
आज भी ,कल भी
हर पल,हर घडी…
फ़िर मिलूंगी तुमसे
बार बार मिलूंगी
सौ बार मिलूंगी
तुम्हें छूकर,तुम्हें महसूस कर
फ़िर से जीऊंगी उन बीते लम्हों को
जो भुलाए  नहीं जा सकते
पर दुहराए तो जा सकते हैं,,,,,,,,,!