Monday 1 August 2011

यादों की धरोहर

कभी कभी मन
वर्तमान की देहरी लाँघ कर
अतीत की गलियों और
चौबारों में घूम आता है
तब लगता है 
आधुनिकता के इस दौर में
हम क्या क्या भूल आये......
वो कच्चा आँगन
और मिट्टी का चौका
लकडी का चूल्हा और
आग मे पकते आलू की सुगंध.....
                
बाबा के हुक्के की
चिलम से उठता धुआँ
बाबूजी की चुन्नटदार धोती
भाभी की गज भर की घूँघट
और अम्मा के हाथों की
मक्की की रोटी..........
यादों में अभी तक हैँ
ज्यों की त्यों.......
दादी की सैकडों-हजारों कहानियाँ
जंगल की खट्टी मीठी बेरियाँ
और कच्चे आम की घुमौरियाँ.........
सावन की कजरी और झूले
हम कुछ भी तो नहीं भूले
झम झम बरसते पानी में
छ्प छप करते बच्चे
और मैदान की भींगी घास में
लुकती छिपती घो-घो रानियाँ !
जाडे में अलाव से सटक
घँटों बैठना .........
गरमी में छप्पर की छेद से आती
धूप की गोल गोल
परछाइयां पकडना,
भरी दुपहरी गुलमोहर की छाँव मे
कंचे और पिट्टो की मौज मस्ती 
न कोई चिंता न फिकर
मस्ती और मटरगश्ती.....
पुआल की ढेरी पर बैठकर
नरम गद्दों से ज्यादा सुख पाना
खेतों से उखाडकर गन्ने चूसना..
मटर की फलियां छील छील कर खाना....
मन कुछ भी तो नहीं भूला
यादों में संभालकर रखा हुआ है
धरोहर की तरह
अमिट निशानियों की तरह
आने वाली पीढी को सुनाने के लिये
कथा कहानियों की तरह....................
                                                
             

                           

1 comment:

  1. आधुनिकता के दौर में हम पुराने को भूल रहे हैं. विकाश के नाम पर हम सुख-चैन गवां रहे हैं. अतीत में संतोष था. संतोष था तो सुख था परस्पर एक दुशरे का ख्याल था. समाज को देने के लिए prem, भाईचारा,सब कुछ था आज इसकी कमी हो गई है.

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