महानगर की
चौडी सपाट सडक पर
सरपट भागती हुई गाडी में बैठकर.....
ॐची ॐची अट्टालिकाओं पर
फिसलती अटकती निगाहों से छुपकर...
भागमभाग की दिनचर्या से घबराकर...
मिट्टी की सोंधी सुगंध
खोजता हमारा मन.........
उसी गाँव की देहरी पर जा पहुँचा
सरपट भागती हुई गाडी में बैठकर.....
ॐची ॐची अट्टालिकाओं पर
फिसलती अटकती निगाहों से छुपकर...
भागमभाग की दिनचर्या से घबराकर...
मिट्टी की सोंधी सुगंध
खोजता हमारा मन.........
उसी गाँव की देहरी पर जा पहुँचा
जहाँ लाल पीले धागों में लिपटा
पीपल का बुजुर्ग पेड
बाँहें फैलाए खडा है ...
गाँव की स्त्रियों ने
पूज पूज कर जिसे
देवतुल्य बना दिया है
जिसकी परिधि को घेरे हुए
पक्का चबूतरा ज्यों का त्यों है.....
जहाँ सुबह शाम बैठकें होती हैं
सुबह हजारों चिडियों की
चहचहाहट के साथ ,
किलकते बच्चे नजर आते हैं
और शाम को चिलम और गुडगुडी
की तानों के साथ
बुजुर्गों के जमावडे में
पूरे गाँव भर की
परेशानियों के हल ढूढे जाते हैं अब भी...............
पास के खेत से
रहट की मधुर आवाज आती रहती है
कच्चे कोयले का धुआँ
गोल गोल छल्ले बनाता
आकाश को छूने की
कोशिश करता रह्ता है.....
स्कूल के मैदानों में
पेडों के नीचे यूँ ही
घास पर बैठकर
गिनती और पहाडे
याद किये जाते हैं.......
और सुर में सुर मिलाकर
प्रार्थना गाई जाती है.......
गोबर से लीपे हुए आँगन में
चौका पूरती दुल्हनें
और कित कित खेलती....
छुई मुई सी बालाएँ........
दीख जाती हैं अब भी.......
मदारी की डमरू
और सपेरे की बीन
सारे गाँव को बटोर लाती है...
झूमर और सहाना
कजरी और फगुआ
उन्मुक्त कँठ गाए जाते हैं
फिरकनी और हिंडोले
मेले की चहल पहल
त्योहारों की धूम
खिलती खेलती वादियों में रची बसी है...
सुख दुख के पलों में
सारा गाँव सिमट कर...
एक घर परिवार हो जाता है अब भी..........
आह ! अभी हमने
बचपन जी भर जिया भी नहीं
जी भर किलोलें भी नहीं की
कि चँचलता अल्हडता
गुम हो गई न जाने कहाँ
तेज़ रफ्तार जिन्दगी
लिए जा रही है
उडाती भगाती न जाने कहाँ
पर अटका पडा है मन
उन्हीं हसीन वादियों में
घूमता विचरता रहता है
सुकून की तलाश में
उन्हीं गली कूचो में..
खेतों की मेडों और पगडंडियों पर
गाहे बगाहे अब भी...........
Itna sundar chitran....ah!
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