समय कितना जल्दी बीत जाता है
लगता है जैसे
कल ही की बात हो
हाथों में तुम्हारे हाथ की बनी
अमलतास की तस्वीर
लिए खड़ी हूँ.......
परत दर परत
बीते वक्त का आवरण
हटता जाता है
आँखें नहीं थकतीं
पलक नहीं झपकते
सुध-बुध भूल सी जाती हूँ.....
तुम्हारी उंगलियों में थमे
ब्रश के स्पर्श को
महसूस करने लगती हूँ ,
रंगों की कुलबुलाहट
और तुम्हारे मन में उठते
भावों के तरंगों को
पकड़ने की कोशिश करने लगती हूँ..
बार-बार जी उठती हूँ
उन्हीं पलों को
जब कितने मनुहार से
तुम मुझे वहाँ लेकर गए थे ,
और जब वहाँ पहुँची
तो फिर लौट आने का
जी ही नहीं होता था...।
मन अटक सा गया था
फूलों भरी वादी में
भटक सा गया था
रंगों के उस अद्भुत नजारे में..
मुग्ध होकर निहारती
रह गई थी....
मन पंख लगाकर
उड चला था...
एक-एक फूल
एक एक पत्ते को
छूने ,दुलराने की
कोशिश करता हुआ..
यहाँ से वहाँ तक
तितली बनी मैं
भूलकर अपनी उमर
भूलकर अपने
कद का लिहाज
दौड़ती फिर रही थी...
मेरा दुपट्टा उन
पीले सुनहरे फूलों से
गले लग-लग कर
इतरा रहा था...
मैं पेड़ के तने को
दोनों बाहों में बाँधे
गोल गोल झूल रही थी...
सुख की अनुभूति में क्षण प्रतिक्षण
अपना वजूद भूल रही थी....।
और तुम जैसे किसी
साधना में लीन.
स्रष्टा की इस अलौकिक कृति का
आँखों से ही नहीं
रोम –रोम से रसपान करते
ठगे से खडे थे.....
मन के सभी द्वार
एक-एक कर खोलते..
अंतरात्मा में प्रकृति के
इस खूबसूरत सिंगार की
छवि निहारते .....
इस तस्वीर को
रंगों में ढालने की
कैनवास पर उतारने की
कोशिश कर रहे थे...
जितना चंचल था मेरा मन
उतना ही धीर गंभीर
शांत और स्निग्ध
तुम्हारा अंतस.........
अब देख पाती हूँ
इन्हीं रंगों और लकीरों में
छुपी ,तुम्हारी कला को,
यौवन के पूरे निखार के साथ
वन चंपा की मादक
सुगंध के साथ.....।
गुंथी है इन्हीं बिन्दुओं
और रेखाओं में
तुम्हारे संवेदनशील
हृदय के तारों की झंकार..।
जरा सी हथेलियों का
स्पर्श पाते ही यह तस्वीर
अमलतास के जंगल की,
सुवास बिखेर देती है...
झूमकर आशीष सा
बरस पड़ती है..
और साथ ही
झनक उठते हैं
मद्र स्वर में..
मेरे भी हृदय के तार
बार-बार
हर बार....॥
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