Saturday 13 June 2015

हिदायतें



बदल गये वक्त के साथ साथ
समझाने बुझाने के तौर तरीके
बदल गयीं छोटी बडी
हिदायतें भी

बैग पैक करते हुए देखती हूं
बच्चों को
और मंडराने लगती हूं
दाएं बाएं
बेटा ! रात देर तक नहीं जागना
इधर उधर अकेले नहीं घूमना
अपनी पढाई पर ध्यान देना

ठीक है मां
बीच में टोक कर बोलता है बेटा

सोचती हूं क्या समय गया
दसवीं पास कर लेने से ही
बच्चे बडे थोडे हो जाते हैं
कुछ भी तो नहीं आता इन्हें
या यूं कहें
हम सिखा नहीं पाए
हरी साग सब्जियां खाना
सुबह सूर्योदय से पहले जागना
रोज नहाना
कुछ समय ध्यान अर्चना में लगाना
इतना ही नहीं
घर के कामों में मदद भी करना
यह सब गुजरे जमाने की बात हो गई

अब सोने जागने के नियम बदल गये
अल्हडता ने चंचलता और
बाल सुलभ जिज्ञासा को लील लिया
हाथ में मोबाईल
सारी दुनिया की जानकारी से भरी पूरी
तो नानी दादी की कहानियों में
रस रहा
तो क्या क्यों और कैसे जैसे शब्दों को
सरलता से पूछे जाने की
मासूमियत ही शेष रही
सारे रहस्य संसार के
हर उम्र के लिये खुली किताब जैसे

दौड कर जाती हूं 
और कुछ खाने को बांध दूं
नहीं मां
कितना भारी हो गया बैग देखो

क्या देखूं
आंखों में बार बार किरकिरी जाती है
दिल बैठा सा लगता है

देखो रोज फोन करना
अनजान लोगों से
ज्यादा मेल जोल नहीं करना

हंस देता है बेटा
पास आकर गले में बांहें डाल देता है
परदेश में जान पहचान वाले
कहां मिलेंगे मां

क्या कहूं
जमाना कहां अच्छा है
इतनी छोटी सी उम्र में
क्या क्या समझ पाएगा भला

एक बात और
बाहर का खाना खाने से परहेज करना
घर का जैसा भी हो
सेहत तो ठीक रहेगी

बोलते बोलते लगता है
कहां मिलेगा घर जैसा खाना
मां के हाथों की रोटी
उसे कब क्या पसंद आता है
मैं ही तो जानती हूं केवल

कपडे संवार कर रखना
बिछावन समेटना
तौलिया धूप में सुखाना
उफ्फ !!

लम्बी लिस्ट है हिदायतों की
समय सब सिखा देता है
जानती हूं
पर मान कैसे लूं
मां हूं
पढाई के नाम पर
दूर देश को भेज देना
समय की मांग ही नहीं
एक दूसरे से आगे बढने के लिये
जरूरी भी है

कलेजे पर पत्थर रख लेती है मां
तभी विदा करती है
आंख के तारों को

छोटी बडी अनगिनत हिदायतों के साथ