Thursday 25 August 2011

ऐ दोस्त


दोस्त !
मुझे पहचान जरा
कि कौन हूं मैं
अंतर में अपने झांक जरा
मैं दर्पण हूं,तू देख छवि
इसमें अपनी

उस दिन संध्या की बेला में
सागर तट पर
गुमसुम गुमसुम
जब खडे अकेले थे तुम
तब ,
कंधे को धीरे से छूकर
किसने तुम्हें दुलारा था
और हाथ पकड कर
दूर तलक
कदमों से कदम मिला करके
था कौन चला…?

जब कभी हुए
अनमने से तुम
और बढे कदम वीरानों में
तब किसने दी अवाज़ तुम्हें
और बांह थाम कर
रोक लिया
अनजाने में………

फ़िर उस बरखा की रजनी में
जब सराबोर थे घर लौटे
भींगे बालों को
तब किसने
अपने आंचल से पोंछा था
और ठंढे से
उस मौसम में
किसने सांसों की गरमी से
तेरी गीली देह सुखाया था

एक दिन देखा था
तुमको
जाने क्या
दिल पर बीती थी
कि आंख तेरी भर आई थी
कुछ मोती
पलकों पर छलके
शायद भीतर कुछ टूटा था
तब याद करो
किसने अपने
होठों पर उनको रोका था……

यूं तो अपनी ही धुन में
मगन सदा मैं रहती हूं
पर चलते चलते पांव थकें
तब ढूंढूंगी… 
और तब तक मेरा
सफ़र रहे कुछ बाकी
तो
बस हाथ पकड लेना
इतना ही चाहूंगी
हैं तो इस जग में 
सबके सब अपने ही,
पर
कोई मन का साथी साथ रहे
यह चाहूंगी…………।

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