Sunday 31 July 2011

इतनी भी क्या जल्दी थी


बाबा !
     तुमने कितना चाहा
     मुझे स्वच्छंद आकाश मि्ले
     जब भी अपने पंख पसारूं
     पुलक भरा अहसास मिले
           जब अबोध थी, तुमने मेरी
           उंगली थाम चलाया
           तेरे ही कंधो पर मैंने
           बचपन का सुख पाया
   मेरे सपनों को अपने
   आशीषो से तुमने सींचा
   स्नेह, प्रेम आदर की भाषा
   मैंने तुमसे ही सीखा
        तेरे निर्देशो पर चलकर
        धीरे-धीरे उडना सीखा
        अनजानी राहों पर हरदम
        निर्भय होकर चलना सीखा
  तुम क्या बिछडे ,मन उपवन से
  बिछुड गई हरियाली…
  जहाँ भी जाऊँ भीतर हरदम
  लगता खाली-खाली…
     आज कहाँ  से लाऊँ  मैं
     सिर पर रखने वाले हाथ
     इतनी भी क्या जल्दी थी
     कुछ दिन और ठहरते तात्
         कुछ दिन और ठहर जाते…।
                         ( दिवंगत पिता की याद में )
                                        

मेरी कविता मेरी सहेली


ठीक याद है,मैं छोटी थी
अम्मा मेरे बाल बनाती
नरम हाथ से धीरे-धीरे
 मेरे उलझे लट सुलझाती
 मैं घुटनों को बाँहों में ले
 कच्चे- पक्के सपने बुनती
 उन सपनों ने आगे चलकर
 कलम हाथ में ले ली
 मेरे सँग गलबतिया की
 मेरी गुडियो सँग खेली
       मेरी कविता बनी सहेली
 हम दोनों सखियो की दुनिया
 जादुई और अलबेली,
 कभी चढी पर्वत की चोटी
 लहरों से कभी खेली
 अब वह मेरी एक सँगिनी
 सुख सपनों के आहट सी
     हर इच्छा ,अभिलाषा को
     ठीक समझ वह जाती
     मेरी आँखें छलकें उसके
     पहले गाल थपक देती
     अगर कभी मुस्काना चाहूँ
     पुष्पगुच्छ सी खिल जाती

चेतन और अचेतन मन की
सुख के दुख के हर लम्हो की
साथी मेरे अंतर्मन की………

ललित भोर की प्रथम किरण सी
धीरे-धीरे आने वाली,
साँझ ढले की आभा जैसी
जादू बनकर छाने वाली,
जीवन की यह डगर कठिन
मैं उसके बिना अकेली
मेरी कविता मेरी सहेली……………


Saturday 30 July 2011

तारे बन गये मीठे बोल


छोटी मुनिया बड़ी सयानी
बातें करती है अनमोल,
जब भी बोले मीठा बोले
वाणी में मिसरी-सा घोल
            अच्छे काम बड़ो की सेवा
            और हमारे मीठे बोल,
            बोलो दादी क्या होता है
            इन सारी बातों का मोल
मत कर मुनिया ऐसी बातें
ना कर ऐसे आँखें गोल,
भले काम का भला नतीजा
ये सारी बातें अनमोल
           अच्छे काम फूल बन जाते
           पँछी बन उपवन में गाते,
           और बड़ों की सेवा का फल
           कभी सका ना कोई तोल
गाल थपक कर बोली दादी
चल मुनिया अब आँखें खोल,
देख गगन में चकमक करते
तारे बन गये मीठे बोल


कब तू इतनी बडी हो गई

                                              कब तू इतनी बडी हो गई
 तब तू कितनी छोटी थी
 घो-घो रानी जितनी सी
 नरम मुलायम प्यारी सी
 टुकुर टुकुर देखा करती थी
 तेरी उन नजरों में मुझको
 सारी दुनिया दिखती थी……

      फ़िर घुटरुन तू चलना सीखी
      हाथ पकडकर पांव छमककर
      छुम छुम छुम पायल छनकाकर
      तेरे नन्हे पाँवो में ,
      नानी ने जो पहनाई थी

जब तू दौड लगाना सीखी
मेरी ही गोदी में चढ्कर
मेरे गालों को छू छू कर
मेरा चेहरा घुमा घुमा कर
अपनी तोतली बोली में
कितना कुछ बतियाती थी
तेरी मीठी उन बातों में
क्या बतलाऊँ बिटिया रानी
सारे जहाँ की खुशियाँ मुझको
कैसे,कितनी मिल जाती थी

   फ़िर गुडियो की बारी आयी
   मेरी नन्ही सी गुडिया
   गुड्डे गुडियो में उलझ गई
   पापा से चोटी गुथवाती
   चाचा से लहंगे सिलवाती
   दादी मोती मूंगे लेकर
   तुझ सँग बौराई रहती थी

दिन बीते और रैना बीती
मेरे सपने बडे हो चले
हर दिन देखा ये ही सपना
खूब पढे तू खूब बढे
दिन दूनी तेरी प्रज्ञा ज़ागे
और प्रतिभा निखर उठे
पढते लिखते खेल कूद में
तू जाने कब बडी हो गई
पूरे होते गए ख्वाब सब
तू ख्वाबो की लडी हो गई
   गुड्डे गुडिया खेल खिलौने
   रह गए मेरी अलमारी में
   शाम सबेरे यही पूछ्ते
   कौन हमारा रूप सँवारे
   क्या बोलूँ मैं क्या जबाब दूँ
   मेरा अपना यही हाल है
   वक्त का पँछी कब रुकता है
   उड ज़ाता है पँख पसारे
अब तू मेरा हाथ थाम कर
राह बाट चलना सिखलाती
और सहेली बनकर मेरी
दुख में सुख में गले लगाती
कभी मेरी अम्मा बनकर तू
बात बात में डाँट पिलाती
और कभी दादी माँ के
सौ नुस्खे मुझको बतलाती
   कब तू सम्बल बनकर मेरे
   ठीक बगल में खडी हो गई
   छोटे पड गए सपने सारे
   तू सपनों से बडी हो गई
   कब तू इतनी बडी हो गई
   कब तू इतनी बडी हो गई