Tuesday 16 August 2011

सच कहती हूं मनमोहन


क्न्हैया…!
झूठे हो तुम…
तुमने मुझसे कहा
राह मत देखना,
आउंगा नहीं अब लौटकर
इस गांव ,
तुम्हारे प्रीत की छांव…
मैं भी भोली
आ गई तुम्हारी बातों में
नाहक लोर बहाया
कितना तडपी
मन मेरा कितना घबराया
एक पल को तो जी में आया
चली चलूं तुम्हारे साथ
गुपचुप  ,
तुम्हारे कदमों के निशान देखती
मुरली के स्वर का अनुसरण करती
पीत वस्त्रों की अलौकिक
छटा में खोई
मोर मुकुट की छवि निहारती…
आकाश पाताल लांघती
दसों दिशाओं को फ़लांगती…।
                             
तुम बिन जिउंगी कैसे
सोच भी न पाती थी
पर जाने कौन सी माया फ़ेर दी
मुझे से कौन से मोह बंध में घेर दी
कहने लगे…
मेरे नंद बाबा का ख्याल रखना
मेरी यशोदा माता तड्पेंगी
उनको धीर बंधाना
मेरे ग्वाल बाल बिलखेंगे
उनपर ममता लुटाना
मेरी गइयां मुझको ढूंढेगी
उन्हें पुचकारना
यमुना मईया के जल को
कदंब की डाल को
मेरी सखियों को
उनकी मटकियों को
सबको प्यार करना
सबपर स्नेह बरसाना……
                             
मैं क्या करती कान्हा
मान गई कहना तुम्हारा
रह गई मन मसोसकर
पर……………
तुम सचमुच बडे झूठे हो
कहां गए तुम हमें छोडकर…??
कण कण में समाहित हो…

जब भी गुजरती हूं
वन उपवन से
लता गुल्मों से झरते हैं
ढेर से पुष्प
उन्हें दिख जाती है
मेरे संग संग चलती
छवि तुम्हारी
गोधूलि में ढोर डांगर लौटते हैं घर को
एक लय में चलते हुए
मस्त ,पगुराते
उन्हें भी सुन पडती है
बंशी की तान तुम्हारी
तभी तो………
यमुना जी के जल में
कदंब की डाल पर
कहां नहीं हो तुम कान्हा………
हर कहीं तो हो
                            
दही बिलोती ग्वालिनें
मटकी में माखन रख
छुप जाती हैं किवाड की ओट में
कहती हैं
आयेगा कन्हैया
खायेगा माखन
छुप कर ही खाता है
सामने रहो तो
आ भी नहीं पाता है
बावरी हो गई सारी की सारी
मैं पूछूं तो कहती हैं
राधिके…!
देखो आज फ़िर
मेरी मटकी फ़ोडी है उसने
आज फ़िर माखन बिखराया
आज फ़िर हमारे व्स्त्र छिपाए
पर जाने क्यों
भाने लगी हैं उसकी हरकतें
जी नहीं होता यशोदा मैया से
शिकायत करने का…
वह बचपन का नटखट है
कब सुधरेगा………?
                      
कन्हैया !
भोर होते ही
किरणों पर चलकर आती है
तुम्हारी मुरली की स्वर लहरी
सांझ गहराती है
तो जाने कौन दिशा से
मोर पंख उडे चले आते हैं
शीतल करने , विरह ताप से जलते
मन को
अपने सान्निध्य का सुख
पहुंचाने जन जन को
                              
क्या मिलन क्या विरह कन्हैया
क्या गोकुल क्या वृंदावन
घट घट व्याप रही तेरी आभा
सच कहती हूं मनमोहन…………॥

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