Tuesday 2 August 2011

एक अधिकार


साथी,मन के......
मैं तो
दबे पाँव आई थी
तुम्हारे पीछे-पीछे,.
ढूंढती तुम्हें
तुम्हें ट्रेन में चढ़ते देखा...
कितनी भीड-भाड.....
ठेलम ठेला,
अकेले तुम
गुमसुम गुमसुम ..
चुपचाप आकर
अपनी बर्थ बिछाकर
बाँहों का तकिया बनाकर
लेट गए.....
जी में आया
खूब हौले से एक
चुम्बन जड दूँ माथे पर
कहीं जान न जाओ,
पहचान न जाओ..
मन की बात
मन में ही रख ली ,
सिरहाने खडी होकर
कुछ पल सोचती रह गई..।
जब तुमने पलकें मूँदीं
कुछ नींद भी आ ही गई होगी.
यह जानकर ही मैंने
अपनी उंगलियाँ
तुम्हारे बालों में फिराई...
क्या पता था
तुम अपनी छाया को
महाठगनी माया को
इतने हल्के स्पर्श से भी
पहचान जाओगे...
सोने का बहाना कर
मुझसे लाड-प्यार करवाओगे...
सोचा था मैं ने
उतर जाऊँगी
ट्रेन के खुलते ही,
उतरना चाहा भी......
अधजागे से तुम,  अधसोए-से,  
थाम ली तुमने मेरी कलाई को....
मैं विवश----
तुम्हें जगा दूँ
यह कर नहीं सकती
और अब छुडा कर हाथ चल दूँ
यह तो सोच भी नहीं सकती....।
बँधी रह गई मोह-पाश में
पूरे सफर
संग संग रह गई तुम्हारे, रात भर...
एक ही नशा,
एक ही खुमारी
एक ही बंधन ,
एक ही लय में बँधे रहे हम-तुम.........
मुमकिन नहीं अब
इस माया का अलग होना
माया की छाया का भी अलग होना
ऐसा करो.....
एक अधिकार दे दो मुझे
हर दिन सुबह जगाने का
और.......रात थपक के सुलाने का....।।



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