Tuesday 16 August 2011

मुझे कुछ नहीं पता


यह चेतन अवचेतन मेरा
सब तेरा
कैसे कब हो गया
मुझे कुछ नहीं पता…
ध्यान लगाया तब तुझको
मन में ही पाया
दर्पण देखा तो तू
पास नजर आया
यह चेहरा यह दर्पण मेरा
सब तेरा
कैसे कब हो गया
मुझे कुछ नहीं  पता…
हल्का हल्का अन्तस
मन निखरा निखरा
खुला खुला सा गगन लगे
खिल खिल करती लगे धरा……
यह घर यह आँगन मेरा
सब तेरा
कैसे कब हो गया
मुझे कुछ नहीं पता……
सुबह सबेरे गई बाग में
कुछ कलियां चुन लाने को
चरणों में प्रभुवर तेरे
श्रद्धा से उन्हें चढाने को
हर फ़ूल लपककर आन गिरा
मेरे आंचल में
पल भर ही दर्शन तेरा
कर पाने को………
यह गुल यह गुलशन मेरा
सब तेरा
कैसे कब हो गया
मुझे कुछ नहीं पता………
जाने कैसे सपनों में
खो जाऊं मैं
बैठी बैठी गुमसुम सी हो जाऊं मैं
यह दिल यह धड्कन मेरा
सब तेरा
कैसे कब हो गया
मुझे कुछ नहीं  पता…………
यह चेतन अवचेतन मेरा
सब तेरा
कैसे कब हो गया
मुझे कुछ नहीं  पता……|

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