Tuesday 30 August 2011

झुटपुटी साँझ


               झुटपुटी साँझ को
                करीब से देखा
                तो ये जाना.......
                कि इतनी खूबसूरत भी साँझ होती है......
                किसी के साथ को
                इतनी शिद्दत से
                ज़ॉ चाहा हमने
                तो ये जाना......
                धड़कन भी कभी
                इतनी अधीर होती है.....!!
                              
                हवा में थी अजब
                कंपन हमारे तन जैसी....
                अँधेरा भर रहा था
                अद्भुत सिहरन मन में.....
                कैसे बताउँ इंतजार की उन घड़ियों को
                कितना बेकरार होकर के
                गुजारा हमने......
                अब वही सब जो उस घड़ी
                होकर गुजरा.......
                यादों में रह रह के गुदगुदाता है...

                वो तेरा आना
                पूर्वा के मधुर झोंके सा
                लपककर समा जाना मेरा,
                तेरी बाँहों में.........
                वो छुवन तेरी नरम
                उंगलियों की......
                वो तेरा चेहरा इतने करीब
                चेहरे के....
                वो तपन तेरी गरम साँसों की....
                बेताब धड़कते
                दिल की आहट ....
                वो तेरे काँधे का सहारा लेकर
                मेरा ढलना......
                रह रह के निगाहों का
                मिलना,झुकना.......
                तेरे होठों की निशानी ,
                मेरे इन गालों पर
                आइना देखूँ तो दिखाई देते हैं
                हर बार मुझे..........
                वो तेरी धीमी मगर
                बहकी बहकी बातें........
                जेहन में बसी हैं नशा बन करके....
                कैसे उतरे ये खुमारी भला ये तो कहो........!
                कैसे उतरे ये नशा बोलो तो...!!
                याद है..
                तेरा आना,तेरा छाना
                होशो हवाश पर मेरे.....
                कैसे भूलें वो घडी बोलो तो...!!
                कि जो महक समाई बदन में मेरे...
                घुल रही है रग रग में अब तलक साथी......
                तुम जो ऐसे मेरा मन छू के गए
                कैसे रह पाएँगे तन्हा बोलो तो.....!
!
                तुम फिर से मिलोगे मुझको है यकीं
                अभी दिल को बहलाउँ कैसे
                जो पाना चाहूँ तुमको
                अभी के अभी.......
                तो करीब तुमको अभी पाउँ कैसे
                वो घडी जो गुजर के गई जादू सी
                फिर से उन्हें पास बुलाऊँ कैसे...
                घुल गई साँसें जबकि साँसों में.
                यादों से उन लम्हों को
                भुलाऊँ कैसे....
                वो सब कुछ ..
                जो दिल ले के गया......
                फिर से पाऊँ कैसे...
                                बोलो तो.....।
     
                ऐसे मीठे ऐसे कोमल
                पल आएँ तो......
                ऐ खुदा उनको ठहर जाने को कहो...
                मनमीत कोई अपना कहीं मिल जाए तो
                ऐ खुदा उसको
                कहीं मत जाने को कहो....
                ये जीवन ये प्राण मेरे प्रभु....
                तुमने बख्शा है मुझे
                किसी नेमत की तरह...
                खुशी मिलती हो जिन खयालों से
                मन के पन्नों में संवर जाने को कहो...!!
                मन के पन्नों में संवर जाने को कहो...!1
                                                   
                                                   
                                                        .
              .

Saturday 27 August 2011

कोई अपना


     कोई अपना..
     मन के इतने करीब हो.
     कि सोते जागते,
     ख्यालों में बसा रहे...
     एक पल को भी जुदा न हो सके...
     जिधर भी निगाहें उठें,
     जब भी नजरें झुकें...
     होंठ खामोश हों चाहे ,
     मनमरजी बतियाता रहे दिल..!!
     साँसों के आस पास ,
     साँसों का आभास होता रहे..!
     धडकन के आस पास ,
     धडकते हृदय का..!.
     रग रग नरम उंगलियों की छुवन
     महसूसता रहे...... 
     और नशा अनदेखे अनजाने
     जुडाव का,
     आनन्द देता रहे...
     वक्त चाहे कोई भी हो
     मौसम चाहे कोई भी..
     भीड में हों हम या कि अकेले
     खोये खोये रहें...
     प्रीत की मीठी मीठी पीडा
     टीसती रहे..........
     और डुबकियाँ लगाता रहे दिल
     आनन्द के  समंदर में,
     अनंत है विस्तार जिसका
     न ओर न छोर......
     फिर किसे मतलब कि ,.
     क्या पाया क्या खोया..
     क्या दुर्लभ क्या हासिल....
     दिल इतना ही जानता समझता है कि,.
     आसमान जितना भी
     ऊँचा हो ,चाहे...
     दुनिया कितनी ही बडी......
     सब कुछ छोटा है
     अपने मन की उडान के आगे......!!.

Friday 26 August 2011

ऐसा क्यों होता है


हर नन्हा बच्चा
अपनी संतान सरीखा
क्यों लगता है……
उसकी हंसी,किलकना उसका
खुशियों से भर देता है,
आंसू उसके, दर्द बढाते
जब बिलख बिलख कर रोता है
आखिर ऐसा क्यों होता है…

सुख देखकर औरों के
हम चाहे जितना खुश हो लें
दु;ख औरों का
सीधे अपने अंतर्मन को
क्यों छूता है……

फ़ूल का खिलना
गान भ्रम्रर का,
हर मन को अच्छा लगता है
हरा पेड कोई
गिर जाए तो ,
क्यों अपना मन रोता है…

हाथ पकड जब दिया सहारा
यह अपना
कर्तव्य सा लगता,
आह निकलती क्यों मुंह से
जब ठोकर खा
कोई गिरता है……

मां कह कर जब
कोई पुकारे
दिल धक से रह जाता है,
हर बुजुर्ग का चेहरा
अपने पिता सरीखा क्यों लगता है…

क्या करे क्या न करे



इहलोक में आता है
जब आदमी
क्या होता है उसके पास
निर्मल ह्र्दय ,पवित्र आत्मा
स्वछंद मन,प्रखर चेतना
कंचन काया,सलोना रूप
साथ में होती है गले में पडी
नवरत्नों की लडी……
सत्य ,धर्म, दया, प्रेम
श्रद्धा, क्षमा, करुणा, अनंत शक्ति,
अनन्य भक्ति…और इन सबकी दीप्ति
नवजात के भाल पर
झलकती होती है…

चलते चलते पूरा होता है
सफ़र इहलोक का
और वापसी यात्रा पर
निकल पडता है प्राणी
तब न तो उसके धन ऐश्वर्य की
न सुख वैभव की
न ग्रह संपत्ति की
न जन परिजन की गिनती होती है
न ही जरूरत होती है
सब के सब रह जाते हैं यहीं…

प्रवेश द्वार पर
परलोक में,
दिव्य ज्योति में मिलने को
बढती हुई प्राण शिखा को
रोकता है स्रष्टि का एक अमर विधान………
गिनता है एक एक मोती
परखता है उनकी चमक
जांचता है खरापन उनका
कितने भूल गए,
कितने बिखरे राह में
कितनों की चमक चुक गई
और कितने दुगुने होकर आए हैं
यात्रा की समाप्ति पर
आदमी के साथ
सफ़र तय करते करते………

सो, आदमी इतना करे
हर आदमी बस इतना ही करे
कि काया रहे न रहे
सुख वैभव मिले न मिले
ग्रह संपत्ति बने न बने
गले में पडी मोतियों की लडी
न टूटे , न बिखरे ,
न धूमिल हो चमक उनकी
रहें सब ज्यों की त्यों
जैसा लेकर आया था,इहलोक में
जैसा उसने पाया था प्रारब्ध से
इहलोक में आते समय परलोक से…………।


प्रार्थना


देने वाले
जिन्दगी चाहे छोटी ही दे
मन को उडने की चाहत
ऊंचाईयों को छूने की ताकत
बांहों को इतना विस्तार दे,
कि…………
समा जाए सारी दुनिया
ह्रदय में इतना प्यार दे
कि बांट सके
पल पल खुशियां………
आंखों को इतनी क्षमता दे
कि देख सके
अप्रतिम सौंदर्य से भरे
तेरे संसार की सारी सुंदरता,
और……
पी सके रोम रोम
प्रक्रति का अम्रृत रस
क्षण क्षण,प्रतिक्षण…
बूंद बूंद अनवरत…
आदि से अन्त तक
अनंत काल तक…………॥

सच्ची कहानी



यूं ही मचलकर बोली
एक रोज बिटिया रानी
मुझको सुनाओ मम्मी
एक छोटी सी कहानी
ऐसी कहानी जिसमें
न राजा हो न रानी
हर बात हो हकीकत
हो सच्ची ही कहानी

मैं हंस पडी अचानक
ऐ मेरी गुडिया रानी
तुमको सुनाऊं ऐसी
भला कौन सी कहानी
दुनिया में ऐसा क्या है
जो तुमको मैं सुनाऊं
मिथ्या ये जिन्दगी है
दुनिया है आनी जानी
ये फ़ूल ये घटाएं
ये व्रक्ष ये लताएं
ये पर्वतों की माला
झरनों का मीठा पानी
माता पिता सखाएं
क्या क्या तुम्हें बताएं
जो आज हैं हकीकत
कल बन जाएंगे कहानी

एकमात्र सत्य है जो
जीवन का अंत है वो
इसके सिवा जगत की
हर बात है बेमानी
इतना ही कह रही हूं
ऐ मेरी बिटिया रानी
ये वक्त जो सुनाए
वही सच्ची है कहानी…

रमण उठ


उठ, रमण उठ…!
बालों में उंगलियां फ़िराती
पुचकारती
अम्मा जगाती
उजाला अभी धरती पर
उतरा नहीं तो क्या
ठंढ से हाथ पांव
सिकुडे जाते हैं तो क्या
नलके में पानी आया होगा…
हौसला रख
प्रभु को नमस्कार कर
कुछ न कुछ आज
कमा लाएंगे
अन्न के कुछ दाने भी
पा जाएंगे
कल रात की तरह
भूखे पेट सोना नहीं होगा
ओढने को कुछ कपडे भी पा जाएंगे

उसकी लीला
है अद्भुत, न्यारी
छांव और धूप
सभी को मिलते बारी बारी

दिन एक से रहते भी नहीं
हर रात के बाद
सबेरा आता है
फ़ूल खिलते हैं हर पत्झड के बाद
दुख भी जाएगा
मेरे बच्चे…!
सुख के दिन भी जरूर आएंगे
अबोध आंखों में सपने जगाती
अपने आंसू छिपाती
अम्मा जगाती
बेटा उठ………॥

प्रभात की किरणें



नव प्रभात की
कोमल किरणें
लुकती छिपती
रतनारे नयनों को मलती
गाल थपक कर धरती को
अहले सुबह जगाने आईं……

चिडियों की टोली
तो निकली
अंबर की सीमा को छूने
भंवरों के दल गुनगुन करते
फ़ूलों पर मंडराने आए…

उषा ने हडबड में अपनी
मोती की माला तोडी
हरी दूब पर ,
चमचम चमचम
मोती के दाने बिखराए…

ठंढी हवा मतवाली होकर
सप्तम सुर में गाने आई
नव प्रभात की
कोमल किरणें
धरती, अंबर ,सागर ,पर्वत
खग म्रृग सबको
बाल व्रद्ध को
अहले सुबह जगाने आई…………

Thursday 25 August 2011

जी चाहे


जी चाहे मेरा
ऊंचे उडना
जी चाहे
आकाश को छूना
जी चाहे
उनमुक्त विचरना
पर चाहे संसार
काट मेरे पंख
मुझे पिंजरे में रखना…
                   
जी चाहे मैं
पर्वत पर्वत
मस्त पवन सी घूमूं
सागर को मुट्ठी में लूं
और बादल का मुख चूमूं
पर चाहे संसार
बांध मेरे पांव
मुझे बंदी सा रखना…
            
रख ले चाहे ,
पांव जकड के
रख ले ,
जंजीरों में जड के
मन मेरा आज़ाद परिन्दा
जित चाहे उत जाए…
जी चाहे रेती में लोटे
जी चाहे
लहरों से खेले,
चांद सितारों से भी आगे
दूर क्षितिज छू आए……।
                     

ऐ दोस्त


दोस्त !
मुझे पहचान जरा
कि कौन हूं मैं
अंतर में अपने झांक जरा
मैं दर्पण हूं,तू देख छवि
इसमें अपनी

उस दिन संध्या की बेला में
सागर तट पर
गुमसुम गुमसुम
जब खडे अकेले थे तुम
तब ,
कंधे को धीरे से छूकर
किसने तुम्हें दुलारा था
और हाथ पकड कर
दूर तलक
कदमों से कदम मिला करके
था कौन चला…?

जब कभी हुए
अनमने से तुम
और बढे कदम वीरानों में
तब किसने दी अवाज़ तुम्हें
और बांह थाम कर
रोक लिया
अनजाने में………

फ़िर उस बरखा की रजनी में
जब सराबोर थे घर लौटे
भींगे बालों को
तब किसने
अपने आंचल से पोंछा था
और ठंढे से
उस मौसम में
किसने सांसों की गरमी से
तेरी गीली देह सुखाया था

एक दिन देखा था
तुमको
जाने क्या
दिल पर बीती थी
कि आंख तेरी भर आई थी
कुछ मोती
पलकों पर छलके
शायद भीतर कुछ टूटा था
तब याद करो
किसने अपने
होठों पर उनको रोका था……

यूं तो अपनी ही धुन में
मगन सदा मैं रहती हूं
पर चलते चलते पांव थकें
तब ढूंढूंगी… 
और तब तक मेरा
सफ़र रहे कुछ बाकी
तो
बस हाथ पकड लेना
इतना ही चाहूंगी
हैं तो इस जग में 
सबके सब अपने ही,
पर
कोई मन का साथी साथ रहे
यह चाहूंगी…………।

यादों की चिलमन

                                                 बांधती है नजर
                   हर समय,हर घडी  
                   मोतियों से बनी
                   सुनहरे धागों की
                   चिलमन,
                   और उसमें टंके
                   छोटे छोटे घुंघरू,
                   हवा जब जब चलती
                   बज उठते घुंघरू
                   छन छन छनन छनन…
                               
                   अब सोचती हूं
                   हर मन खिडकी ही तो है
                   जिसपर टंगी है
                   अनगिनत यादों की चिलमन
                   वक्त बेवक्त छनकते रहते हैं घुंघरू
                   और उत्फ़ुल्लित होता रहता है मन…
                                                        
                   ऐसी होती हैं यादें…
                   रोम रोम में बसी
                   गहरे कहीं अंतर में समाई
                   कि जाएं कहीं भी
                   रहें हम कहीं…
                   जागे या सोए,रहें खोए खोए……
                                          
                   इन्हीं यादों में है
                   किसी का मिलना
                   और बेतकल्लुफ़
                   गले से लिपटना
                   मन का खुल जाना बे लाग-लपट,
                   ह्रदय की कली का
                   तत्क्षण खिलना……
                              
                   कभी तो किसी के
                   हाथों में हाथ डाले
                   तय करना सफ़र
                   अनदेखा ,अनजाना ,
                   कभी आंखों आखों में
                   गुपचुप बतियाना…
                   कभी तो अकारण हंसना हंसाना
                   कुछ सोचना और बस मुस्कुराना………
                                                      
                   चांद तारों से जिसने
                   ये दुनिया सजाई,
                   उसने ही ख्वाबों की
                   चिलमन बनाई…
                   यादों के घुंघरू जब भी छनकते
                   ताल देती है धडकन,
                   नाच उठता है मन…………
                   छन छन छनन छनन….