Sunday 24 November 2013

तितली

'तितली' सुनते ही याद आती है न
वो पीली पीली नन्ही सी जान
जिसे छूते ही पीला रंग
लग जाता था उंगली पर

बाग ,फूल,तितली और
दो उंगलियों की चुटकी बनाये
आहिस्ता आहिस्ता चलता हुआ
कोई बालक
ठीक उसके पास पहुंचा नहीं  कि उड गई
पता नहीं कौन किससे खेलता होता
बालक या तितली


जी में आता पूछूं
बता तो कहां से लायी रंग इतने
क्योंकर पाई रूप इतना
क्यों है तेरी काया इतनी इतनी नाजुक
सुना है तू जिजीविषा की धनी है
इल्ली से तेरा जन्म लेना
धीरे धीरे धीरे सतत प्रयास कर
संसार के उजाले में पर निकालना
मिसाल है संघर्ष का
और इसी से पाती है तू
इतना सुंदर रंग रूप
नन्हे नन्हे परों पर आसमान छू लेने की ताकत

तेरे नाम की तुतलाहट
तेरी छोटी छोटी पुतलियां घुमाकर
चहुं ओर देख पाना
और आंख मिचौनी खेलना
नाजुक सी दूब पर बैठकर भी
आराम से झूल लेना
फूलों से जाने क्या गलबतियां करती
कि खिलखिला उठते हैं सारे

सब कुछ रहस्य है
उस चतुर चितेरे के रंग भरे संसार के
जो हर कहीं रंग भरता रहता है
चाहे वह पहाडों की सख्त चोटियां हों
या तितली के नाजुक पंख

इन्हीं ख्यालों में थी कि
कहीं से उडती राह भूली एक तितली
आई और पास रखे गुलदस्ते पर बैठ गई
अपराध बोध से भर गया मन
कैसे कहूं उससे कि उड जा
ये असली फूल नहीं जिनसे तू
बतिया सके,जिनके मधुर पराग चुन सके
पर वादा करती हूं
रखूंगी इन गुलदानों में असली फूल
सजाउंगी इसी बालकनी में
नन्ही सी फुलवारी
तब आना………………………॥