शब्द छोटे पड जाते हैं
भाषा मायने खो देती है
अभिव्यक्ति सांगोपांग
मुखर हो उठती है.....
:जब मौन बोलता है ,
नि:शब्द होकर ,बेआवाज होकर...
प्रकृति बोलती है............!
अहले प्रात:
गुलाबी ,लाल , सुनहरी
किरणें क्रमश:
नरम उंगलियों से
पहाडों को छूती हैं...
कहाँ कुछ बोलती हैं.....?
पर बोलती है
उस चित्रकार की तूलिका...
कण कण बोलता है
प्रकृति का........!!
ओस की चादर ओढे
अलसाई धरती
आधी जागी आधी सोई होती है
सुख भरे सपनों में खोई होती है..
कहाँ कुछ बोलती है.....?
पर बोलती हैं..
घास पत्तों पर बिछी
मोती सी चमकीली बूँदें....
दो क्षण के अपने जीवन काल में
कितना कुछ बोलती हैं.......!!
और जब जाग जाती है दुनिया
उतर आता है प्रभात
कण कण पर.......
चिडियों की चहचहाहट में..
पेड पौधों की कुलबुलाहट में...
खिलती पंखुडियों से उडती
सुगंध के साथ
प्रकृति भैरवी की तान छेडती है...
कितना कुछ बोलती है.....!
और फिर उतरती शाम.........
आदमी का साया जब
उसके कद से लम्बा होने लगता है
सूर्य अपनी रश्मियाँ समेटने लगता है
बिखरी हुई लीला
बटोरने लगता है......
स्याह चूनरी तारों वाली ओढकर
संध्या चहुँ ओर तंद्रिल आभा
बिखेरने लगती है.....
तब प्रकृति नि:शब्द
आँखें मूँदे ....... कितना कुछ बोलती रहती है.......
कि ढल गई एक शाम उम्र की कि बीत गया एक दिन
अपने हिस्से का....
क्या किया ,क्या भूला...
क्या पाया ,क्या खोया...
इसका हिसाब रखेगा
वह
जिसने सब कुछ रचा...
गुपचुप ! गुमसुम !!
बिना कुछ बोले , बिना कुछ कहे
नि:शब्द.......!!!!
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