Monday 1 August 2011

सृष्टि चक्र

                                       साँझ को आज
 धरा पर उतरते हुए देखा
 फूलों पर पत्तो पर
 धीमे पग धरते हुए देखा
 उजियारा धुंधलाता गया
             झुटपुटा अन्धेरा छाता गया
             वह सब कुछ जो अब तक स्पष्ट था
             आंखों से ओझल होता गया..........
सामने खडे पेडों को देखा
पत्र विहीन,अपने ही सूनेपन में लीन
नये कोंपलों की आशा में
बसंत की प्रतीक्षा में
फूल खिलाने वाले मौसम की
बात तो सभी करते हैं
पुराने पत्ते उतारने वाले
मौसम की बात कौन करता है
यह पतझड का त्याग ही तो है 
जो बसंत को खिलाता है.......
पूरे वातावरण में फलने फूलने
के अवसर देता है
पुराने पत्ते गिरे ही नहीं
तो नयों को कहाँ पनाह मिले
डालियाँ खाली न हों तो
वसंत अपने पग कहाँ धरे
                    यही तो राज है सृष्टि का
                    यही तो होता है हम सब के साथ
                    बुढापा उतारता है पुराने वसन
                    और नया रूप धरकर आता है बचपन
                    कहीं कुछ नहीं खोता
                    बस चलता रह्ता है परिवर्तन का क्रम
                शाश्वत है प्रकृति का यह नियम...................

1 comment:

  1. फूल खिलाने वाले मौसम की
    बात तो सभी करते हैं
    पुराने पत्ते उतारने वाले
    मौसम की बात कौन करता है
    यही जीवन कि सचाई है.
    मनुष्य, पाना चाहता है पर खोना नहीं.
    बहुत सुंदर कविता.

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