साँझ को आज
धरा पर उतरते हुए देखा
फूलों पर पत्तो पर
धीमे पग धरते हुए देखा
उजियारा धुंधलाता गया
झुटपुटा अन्धेरा छाता गया
वह सब कुछ जो अब तक स्पष्ट था
आंखों से ओझल होता गया..........
सामने खडे पेडों को देखा
पत्र विहीन,अपने ही सूनेपन में लीन
नये कोंपलों की आशा में
बसंत की प्रतीक्षा में
फूल खिलाने वाले मौसम की
बात तो सभी करते हैं
पुराने पत्ते उतारने वाले
मौसम की बात कौन करता है
यह पतझड का त्याग ही तो है
जो बसंत को खिलाता है.......
पूरे वातावरण में फलने फूलने
के अवसर देता है
पुराने पत्ते गिरे ही नहीं
तो नयों को कहाँ पनाह मिले
डालियाँ खाली न हों तो
वसंत अपने पग कहाँ धरे
यही तो राज है सृष्टि का
यही तो होता है हम सब के साथ
बुढापा उतारता है पुराने वसन
और नया रूप धरकर आता है बचपन
कहीं कुछ नहीं खोता
बस चलता रह्ता है परिवर्तन का क्रम
शाश्वत है प्रकृति का यह नियम...................
फूल खिलाने वाले मौसम की
ReplyDeleteबात तो सभी करते हैं
पुराने पत्ते उतारने वाले
मौसम की बात कौन करता है
यही जीवन कि सचाई है.
मनुष्य, पाना चाहता है पर खोना नहीं.
बहुत सुंदर कविता.