Sunday 4 December 2011

ओ वाचाल



कितने वाचाल हो तुम…!
तुम्हें कैसे मालूम
कि मैं दीवानी हूं तुम्हारी
पल भर को भी
बाग में आऊं
तो ,
जाने किधर से जाते हो
मेरी जुल्फ़ें लहरा देते हो
छूकर मुझे
सर से पांव तलक
दुलरा जाते हो
मेरे आंचल से तुम्हें नेह कैसा…?
छेड- छेड जाते हो
यह भी नहीं सोचते
लोग क्या कहेंगे
कई बार सोचा
पूछूं तुमसे
कौन दिशा होकर आए हो
कौन शहर ,कौन से बाग होकर
गुजरे हो
इतनी- इतनी खुशबू
कहां से लेकर आते हो
मैं तो मुग्ध होकर
महसूस करती हूं
छुअन तुम्हारी
मीठा मीठा स्पर्श तुम्हारा
लोग कहते हैं
प्राण हो तुम सबके
क्षण भर भी जी नहीं सकता कोई
तुम बिन……
ले जाओ मुझे भी एक दिन
अपने साथ उडा कर
दूर क्षितिज के पार
बादलों के ऊपर ऊपर
पर्वतों की चोटियों तक
समंदर की लहरों तक
फ़ूलों की घाटियों तक
रूप ,रस ,गंध भरी वादियों तक
चंचल !
शीतल !
मदभरे पवन…!!

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