Thursday 1 December 2011

जो मन कहता, सो वह कहता.........


इस चीड वृक्ष की शाखों में
है किसका मन
खोया-खोया
है कौन छुपा इनके पीछे
ऐ चित्रकार
तू देख जरा...
है किसके रुह की आभा यह
इतनी उजली
इतनी शीतल
है सबमें उस स्रष्टा की झलक
बस मूँद पलक
और देख ले तू.........
इस पर्वत के चप्पे चप्पे...
इस निर्झर की
हर बूँदों में,
इस सरिता की धारा में भी
और साँझ सुबह की लाली में
कोमल पंखों पर है खग के  
और हिरन की चौकड़ियों में भी
वो कहाँ नहीं
वो हरेक जगह
वो गगन में है ,
वो घटा में भी
वो जमीं पे है
वो जल में भी......
वो मन में है, वो वन में है
इस जग का है
वह रखवाला
उसने ही कायनात रची
उसने हमको सुंदर ढाला...
खुली नजर गर ना दीखे
बस आँख मूँद,
महसूस सदा....
फ़ूलों में भी खुशबू में भी
नीँद में भी सपनों में भी
मुझमें है
तुझमें भी है
वह कुछ भी नहीँ
वह सब कुछ है
भले बुरे कर्मों में भी
मन में उठते भावों में भी
यह चीड़ वृक्ष ही एक नहीं
सारे जग में उसकी ही झलक
इतना कोमल इतना रसमय
इतना निर्मल
इतना मदमय
प्यार भरे हर दिल में तो
होता रहता एहसास सदा
आओ मिलकर हम ध्यान करें
उसका दिल से एहसान करें
कि उसने बनाया
है हमको
तो मानें उसकी बात सदा
अब मत पूछो वह क्या कहता
जब मन के भीतर वह ही है
जो मन कहता, सो वह कहता.........


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