क्यों नहीं खोली थी मैंने
खिडकियां
क्यों नहीं सुन पाई
उसकी आहटें
क्यों भरी थी नींद
मेरी आंख में
क्यों बदलती रह गई
मैं करवटें…
ठीक अपने वक्त पर
वो आई होगी
सांकलें भी उसने
खटकाई होगी
चिलमनों को जब
उसने हटाया होगा
खुशबू का झोंका
जरूर आया होगा…
भरमा गए होंगे
मेरे सुख स्वप्न भी
सोचा न था ऐसा
करूंगी मैं कभी
लौटकर न जाए
ऐसे कोई भी,
जाते जाते खिला गई
कलियां सभी…
यूं लगा जैसे
कोई दुलरा गया
और तभी से आंख
मेरी शरमाई है
कौन मानेगा मेरी
इस बात को
कोई नहीं वह
भोर की पुरवाई है…॥
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