अपलक देखती रहीं ,
वो मेरी निगाहें थीं…
थम सी गई, वो धडकन थी
ठगी सी रह गई, वो मैं थी…
आहिस्ते कदम रखते
आने वाले तुम थे ……
देव स्वरूप सूरत तुम्हारी
आकाशवाणी की तरह
मद्धिम मीठी सुरीली
आवाज तुम्हारी…
बस गया रूप तुम्हारा
मन के दर्पण में
पहले भी कहती थी
कोई भटकन है जन्मों की
यूं ही नहीं बेचैन होती आत्मा
ढूंढती रही कालान्तर से
न जाने कहां कहां…
देखा भी नहीं था तुम्हें मैने
पर महसूसती थी
बंधन शाश्वत सा
पहचानता हो जैसे मन प्राण
एक दूसरे को कब से…
सोचती थी मिलोगे जब भी
रोक नहीं पाऊंगी स्वयं को
तोड ही डालूंगी बेडियां
जमाने की निगाहों की…
और बुझा लूंगी अखंड
प्यास अंतरात्मा की…
भर लूंगी आगोश में
तुम्हें तत्क्षण…
छू भी नहीं पाई
कि मलिन न हो जाए रूप
तुम्हारा …
सौम्य तुम्हारी निगाहों की
तासीर थी ऐसी…
वो आत्मीय नजर
वो म्रृदुल वाणी
और मुस्कुराकर पूछना
पहचाना मुझको ?
देखा है पहले कभी ,कहीं ??
बोल नहीं फूटे मेरे
बस सिर हिलाकर कह दिया
नहीं तो…
और हंस दिये तुम
जैसे हंस रहा हो यह मायावी संसार
कि यही माया है ।
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