Friday, 9 December 2011

यह कैसा सपना


सबेरे ज्यों ही मेरी नींद खुली
अधखुली पलकों से
देखा---
हरी घास की
मखमली चादर ओस से भींगी हुई है
रौशनी लालिमा बनी
मुस्कुरा रही है
जगमगाता उजाला
धीरे-धीरे रहा है
सारे फूल अलसाए-से सोए हुए हैं
अभी उनकी आंख नहीं खुली
कुछ नई कलियां फ़ुनगियों पर
उग आई हैं
कुछ कलियां चटक कर
फूल बन गई हैं
हर तरफ़ खुशबू ही खुशबू है
हवा हल्के-हल्के सबको दुलरा रही है

पूरी पलकें खुलीं तो देखा
वैसे ही सोई पडी हूं
घास पर पूरी तरह फ़ैलकर
अपना ही आंचल सर से पांव तक
ओढकर
मुट्ठी खुली हुई है
जैसे अभी-अभी किसी के हाथों को
छोडा है मैंने
शायद थामकर ही सोई रही रात भर्
                       
अंगडाई लेकर उठी
कल-कल करते झरने ने मुंह चिढाया
मीठे सपनों ने हौले से जगाया
कि उठो !
सबेरा कबका हो चुका

अरसा बीत गया
यह सुंदर सपना मन के किसी कोने में
रच बस कर रह गया……!!

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