Tuesday 13 December 2011

चले आओ


द्वार खुले हैं
चले आओ…
पांव रखते ही आंगन है
मेरा आंगन
मेरे सपनों का आंगन…
देखो है न महका-महका…?
मैंने अपने खुशहाल सपनों से सजाया है

यह, इस कोने में
छोटी सी क्यारी है
मैंने रोपे हैं इनमें कई-कई सपने
सुंदर, मुस्कुराते सपने
बडे होंगे जब ये
सहेजेंगे मुझको भी
देखो है न शीतल सुवास ?
विचित्र पुरसुकून एहसास !!
      
इधर संभल कर आओ
यहां मेरे कुछ उदास सपने हैं
बुनते-बुनते रह गए
या कहो पूरी नहीं हो पाई गढन इनकी
इन्हें दुलार फुसलाकर मैंने यहां बिठाया है
छोटी-छोटी खिडकियां भी हैं
जिनसे आती रहे उम्मीदों की रौशनी…
              
यहां सीढियां हैं
आराम से चढो
मेरे सपनों की सीढियां हैं ये
एक एक पांव रखती हूं इत्मीनान से
आहिस्ता- आहिस्ता…
डगमगाएं न कदम
आहत न हो कोई सपना…
             
देखा…
है न मेरे सपनों का आंगन खुला-खुला ?
कोई दीवार नहीं है यहां
मैंने बांधने की कोशिश नहीं की
इन्हें आजादी दी है
खिलने की, निखरने की
पहाड लांघने की
दरिया उलांघने की
आसमान छू लेने की…
        
हां, बांधा भी है इन्हें
नाजुक रेशमी धागों से
कायदों के, नैतिक मूल्यों के
बडी मजबूत है सीवन इनकी
बहकने की इजाजत नहीं मिलती सपनों को…
              
आओ,
कुछ पल मेरे साथ बैठो
मेरे आंगन मे
मेरे सपनों के आंगन में
करें सपनों की बातें
करें पूरे और अधूरे सपनों की बातें
बुनें कुछ सपने
चेतन के, अचेतन के…
ज्योतिर्मय सपने सृजन के……!!!



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