Tuesday 6 December 2011

ऐ सखी…



ऐ सखी
सच कहूं…?
पल भर की मुलाकात से
मन मेरा नहीं भरा
बरसों बाद मिले हम-तुम
तुम्हारा भी मन हुआ
कि लिपट जाओ
मेरे गले से ,
भर लो बाहों में कसकर
हम इतने बडे क्यों हो गए…?
तब कितना अच्छा था
जब हम छोटे थे
कोई क्या सोचेगा, क्या कहेगा
इसकी परवाह नहीं थी हमें
हाथों में हाथ डाले
गलीगली घूमते
गांव भर का चक्कर लगा लिया करते थे
याद है तुम्हें…?
गुडिया की चोटी गूंथनी भी नहीं आती थी हमें
रमा की दादी सिखा सिखा कर
हार गई थी
फ़िर अपने आप ही हमने सीख लिया
तब तुम मेरी चोटी बनाती
मैं तुम्हारी……
याद है …?
सबेरे सबेरे हम हरी दूब पर से
ओस की बूंदें चुन-चुनकर
अपने कानों पर लगाया करते थे
जब ,तांबे की छोटी छोटी बालियां
अम्मा ने हमें पहनाइ थी
कहा थामोतियों वाली
बालियां ले दूंगी……
फ़िर मेरी गुडिया को
तुम्हारे गुड्डे ने ब्याह लिया
अब जब हम भी अपना घर बार
छोड नए घर ,नए परिवेश
नए परिवार में गए
और फ़िर से वक्त वही कहानी
दुहराने लगा……
कि मेरी नन्ही सी बिटिया को
गुडिया की चोटी गूंथनी नहीं आती
कि सबेरे हरी दूब पर ओस की बूंद
ढूंढती हूं………
तुम बहुत याद आती हो
इस अनजाने शहर में
यूं अचानक तुम्हारा मिलना
लौटा ले गया मुझे
कच्ची पक्की गलियों वाले
हरे-भरे खेतों खलिहानों वाले
सोंधी सुगंध वाले गांव में
अल्हड ,चंचल ,मस्त,
मनमौजी दिनचर्या वाले
बचपन की यादों के छांव में
तुम्हें छूकर सच कहती हूं
मेरी सखी !
मैंने जैसे छू लिया हो
गांव भर के बाल सखाओं के गाल
नानी दादी बुआओं के
स्नेह स्निग्ध पांव
और महसूस किया कई कई हाथों का
आशीर्वाद भरा स्पर्श



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