Sunday 4 December 2011

अंतहीन प्यार




उसने पूछा
क्या हुआ
प्यार्……
किससे
सारी दुनिया से………
सारी दुनिया से  ??
हां ,सारी दुनिया से………
वह जो किताब में सर गडाए
बैठा था अब तक
उसने नजरें उठा कर देखा………
वह तो मगन थी अपने आप में
किसी छोटे बच्चे की तरह
बाहें फ़ैलाए गोल गोल घूम रही थी
अब गिरी कि तब ,
वह हडबडा कर उठा
उसे संभालता हुआ बोला---
सच सच कहो—क्या हुआ ?
बहुत नरम थे स्वर उसके
मन की सारी सरलता जुबां पर
आ गई हो जैसे…
क्या कहता है मन तुम्हारा…?
उसने फ़ुसफ़ुसा कर कहा---
ऐसे ही रहो…
कुछ मत पूछो
कुछ मत कहो
जो कहना चाहता है मन मेरा
मन से ही सुनो
और वह भी
जो कह रही यह डूबती हुई लाली
देखो ,कैसे लाल हुआ जाता है
सारा संसार
देखो कैसे चहकते हुए लौट रहे परिन्दे
देखो कितनी लाज है सांझ के चेहरे पर
झुक कर चूम रहा आकाश
धरती की पेशानी
मिलन पर्व का नशा है
दिन-रात के मुखडे पर
हर शाम गुजरता हुआ वक्त
ठहरता है कुछ क्षण
देखता है मुडकर उतरती शाम की
स्याह चूनर का अप्रतिम सौंदर्य
सुनता है उसके झांझर की रुनझुन
और बिखेर कर जाता है
सारी कायनात में
नशा ,खुमार ,
अंतहीन प्यार…………।    

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