Friday 2 December 2011

आंखों की खता



बारिश होकर
थम भी चुकी है
सूरज की आभा
चारों तरफ़ फ़ैल रही है
धुला धुला सा गगन
और भींगी भींगी धरती ,
हवा भी गुनगुनी सी बह रही है
सामने
घास के मैदान में
ठहर गए थोडे से पानी में
गोल गोल तरंगें उठ रही हैं
शीशे की तरह
साफ़ झलकते पानी में
तुम्हारा चेहरा
मुस्कुराता दीख रहा है
हैरान हूं
यह तुम हो
या मेरी आंखों की खता है
जो हर वक्त ,हर जगह
बस तुम्हें ही ढूंढती रहती है…

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