ऐ मन ले चल मुझको
ऐसी जगह ,
कोई जानता न हो
हमें पहचानता न हो..
न पूछे हाल ही कोई
न हो बेहाल मिलकर ही...
न गलियां हो परिचित सी
न बगीचे बाग ही कोई
न कोना कोई हो ऐसा
लगे जो अपना अपना सा…
न अपने ही वहां कोई
पराए भी न हों कोई
गले लग जाए जो बढकर
ऐसा भी न हो कोई
तपिश न धूप की ही हो
मिले जो गर्म जोशी से
न छाया ही करे हमसे
कुछ मीठी मीठी बात…
न धूल राहों की
लगे कुछ सोंधी सोंधी सी
न बूँदें बारिश की
लगें बिल्कुल सगी जैसी…
हवा में भी घुली न हो
महक अपनों सरीखी ही
न पेड़ों और लताओं की
छुवन ही मृदुल सी हो…
न बोले स्नेह से कोई
न थामे हाथ ही कोई
लिपट के चूमने वाला
वहां न शख्स हो कोई...
जताए प्यार न कोई
न कोई हंस के ही बोले
न कोई राह ही रोके
पुकारे मुडके न कोई…
ले चल मुझे ऐ मन
यहां अब जी नहीं लगता.......
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