Thursday 22 December 2011

एक पल रुको


मैं           
बहती हुई नदी थी कभी
आज
ठहरी हुई एक झील हूँ
मुसाफिर !
एक पल रुको ,
ध्यान से देखो...
तब चंचल थी
चलती रहती थी
आठों पहर ,वर्ष भर...
पर्वतों पर
पठारों में...
मचलती ,कुलांचें भरती....
तट की सीमाओं को भी
कई बार लांघा मैंने ,
कभी सिकुड़ी कभी सिमटी
कभी विस्तार पाई..
लेकिन किसी भी हाल में
तनिक न घबराई...
कितने कितने खेतों को सींचा मैंने
हरियाली बोई
नहरों में बंटी...
जीवों की प्यास बुझाई
कह नहीं सकती
कितना प्यार पाया मैंने
जहां जहां भी गई...
     
छल छल करता
जल मेरा
कल कल करता
स्वर मेरा..
आह्लाद भरे दिन रैन मेरे..

अब थक गई काया मेरी
समेट लिया मैंने
अपने बाजुओं को
रोक लिया अपने विस्तार को
बांध लिया परिधि में
अपने आप को...
थाम लिया थिरकते पांव को
शोख ,चंचल आदतों को
रख लिया
यादों में सहेज कर
रूप मेरा अब हुआ
एक शांत कज्ज्ल झील का ,
संभ्रात सा..
खुश हूँ बहुत कि अब मेरा
चित्त मग्न है
कुछ इस तरह ,
कि अब मेरा कोई प्राप्य नहीं है
न किसी की साधना ही है.
जब तलक नदी थी
सदा  
समंदर को छू पाने की कामना
करती रही...

हर रात
जब आकाश में
चांद खिलता है
और करोड़ों चमचमाते
ग्रह .सितारे उग आते हैं
छवि उनकी जल में
निहारती हूँ
अंक में भर लेने का ही
सुख सदा पा लेती हूँ
उनके झिलमिलाते
रूप का रस
मदहोश होकर
पीती रहती हूँ..
 
हर सुबह कुमुदनी
जब कुनमुना कर
जागती है
चूम कर उसकी
कोमल पंखुड़ियों को
खुश हो जाती हूं
  
और जल में सूर्य की
परछाईं को ही देखकर
जब कमल अपना सर्वस्व
झरा देता है
प्रेम की अद्भुत रवानी
मैं ही तो महसूसती हूँ..
  
खूबसूरत छोटी छोटी
नौकाएं ,
जलकुंभियां ,
तिरती तैरती मछलियां
और क्या क्या कहूं
मन का सुख
शब्दों में कैसे बयां करूं..
मुसाफिर !
चले मत जाओ
रुको ,
एक पल रुको ....
रुको ना…!!    






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