Saturday 10 September 2011

रूप बदल कर आऊंगी


पर्वत की गोद से एक नन्ही
सरिता निकली…
चट्टानों पर चढते
रुकते और संभलते
मैदानों की ओर चली…
    नीचे आकर उसका
    रूप और भी निखरा
    पौधों की,खेतों की खातिर
    फ़िर,उसका जल बिखरा
    जहां चली ,जीवन देती
    वह जहां गई हरियाली छा गई…
एक दिन नदी की धारा में
दो हंस कहीं से आए
थोडी देर किलोलें की
और आपस में बतियाए…
   कहा हंस ने-देख हंसिनी
   हम अभी जिधर से आए
   कैसे फ़सलें सूख रहीं
   और खेत रहे मुरझाए
   अपने तट बंधों की
   सीमा में बंधी,
   क्या करे यह छोटी सी नदी…?
कहा नदी ने-सुनो हंस !
मैं सदा समय संग चलती हूं
जिस हाल में दाता रखे
मैं उसमें खुश रहती हूं
अभी तो मेरा काम है चलना
बस चलना और चलते रहना,
    चलते चलते एक दिन मैं
    जब सागर तक जाऊंगी
    सागर के जल में मिलकर
    मैं भी सागर बन जाऊंगी
    सूरज की किरणों संग फ़िर मैं
    जब अंबर तक जाऊंगी
    बादल बनकर संग हवा के
    इधर उधर मंडराऊंगी
    उन मुरझाए खेतों पर भी
    बूंदें बरसा पाऊंगी
    और फ़सलों को जीवन दूंगी
    जब रूप बदल कर आऊंगी…॥

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