रूप तुम्हारा
मन को बहुत लुभाता है
तुम जब बादलों की
नन्ही सी डोली में बैठकर
रौशनी का ओहार डाले
आसमान का चक्कर लगाने आते हो
पलकें नहीं झपकाते हम
नयनों से तुम्हारा रूप रस
पीते रहते रहते है
मन पुलकित होता रहता है……
जब तुम मुंह अंधेरे
रंग बिरंगी कूची और
अनगिन रगों वाली रंगपट्टिका लेकर
दिग दिगंतों में रंगत भरने
आते हो,
क्षण क्षण खींचते चले जाते हो
रेखाएं रौशनी की
कौन सा रंग
भरते हो तुम…?
कि देखते देखते
काव्यमय हो उठती हैं दिशाएं
अपलक निहारते हैं हम छवि तुम्हारी
मन प्राण में अद्भुत
आनन्द का संचार होता रहता है……
फ़िर जब तुम
महीन महीन फ़ुहारें लेकर
धरा का चेहरा
धोने चले आते हो
अपने भींगे हाथ बढाकर
पोंछ देते हो
सारे ताप कलुष धरती के
घुंघरू की रुनझुनाहट सी
गूंज उठती है हर कहीं
पल्लवित पुष्पित हो जाता है
प्रक्रति का अंग अंग
तुम्हारा रूप सिंगार
हमें अपार आश्चर्य से भर देता है……
और कहीं
पर्वत शिखर से
नन्ही सी धारा का रूप धरकर
जब उतरते हो धीरे धीरे
प्रपातों से गिरकर
अपनी राह खुद ही बनाते
कई कई अवरोधों से लडते
उन्हें मोडते,खुद मुडते
गिरते संभलते चले आते हो
झरने का नयनाभिराम रूप
अख्तियार करते हो,
फ़िर नदी बनकर चलते चलते
मिल जाते हो अथाह सागर में
उलीच उलीच कर
लहरों की अंजुली से
शंखों सीपियों को
बिखेरते रहते हो तट पर
हर बार तुम्हारा कौतुक
तुम्हारा प्यार,
तुम्हारा अद्भुत सिंगार
विभोर करता है अंतर्मन को,
मुग्ध कर जाता है ह्रदय को
तुम्हारा शुभ्र सलोना रूप
मन को बहुत लुभाता है
तुम्हारा सुंदर स्वच्छ स्वरूप…
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