गीत ऐसा सुनाऊं
कि जब गा चुकूं
कोर पलकों की भींगी रहे आपकी
मैं खडी हूं अभी तक
उसी मोड पर
हाथ छूटा तो ये है खता आपकी
जो ये कहते थे
काहे पुकारा नहीं
आज आवाज सुन क्यों मुकरने लगे
हमसे रौशन थे उनके ये दोनों जहां
आज मुडके न जाने किधर चल दिए
वक्त इतनी बदलता है
क्यों करवटें
मैं हूं हैरां ये कैसी अदा आपकी …
गीत ऐसा सुनाऊं…………
जो ये कहते थे
रिश्ते ये जन्मों के हैं
कोई चाहे मगर टूट सकते नहीं
मन से मन का है नाता
किसी हाल में
हाथ अपने कभी छूट सकते नहीं
मुझको रब से कभी कुछ
नहीं चाहिए
चाहती हूं सुनूं बस सदा आपकी…
गीत ऐसा सुनाऊं कि
जब गा चुकूं
कोर पलकों की भींगी रहे आपकी
मैं खडी हूं अभी तक उसी मोड पर
हाथ छूटा तो ये है खता आपकी……
Khoobsurat prayas,badhai.
ReplyDeleteशशिबाला जी,बहुत अच्छी रचना है| इहलौकिकता और पारलौकिकता के द्वंद्व से सृजित यह कविता आपकी सोच को नया आयाम देती है| बधाई !
ReplyDeleteसुरेश कुमार, राँची |