Wednesday 1 February 2012

तब याद तुम्हारी आती है


जब नरम बिछौने से उठकर
रवि आसमान में आते हैं
उस ऊंचे ताड के पत्तों के
पीछे जाकर छुप जाते हैं
तब हल्की हल्की किरणों से
जग सारा भर जाता है…
लगता है कोई पुकार रहा
तब याद तुम्हारी आती है…

सांझ ढले पेडों से उतर
जब धूप  धरा पर आती है
मेरे बाग के पौधों पर ही
बैठ के वह सुस्ताती है
जाने कौन दिशा से मुझको
कोई आवाज लगाता है
लगता है तुमने नाम लिया
तब याद तुम्हारी आती है…

फिर रात ढले जब सन्नाटा
चहुं ओर पसरता जाता है
नींद की गोद में जाने को
हर प्राणी कदम बढाता है
तब रंग बिरंगे कई सपने
आकरके मुझे चिढाते हैं
मन बेकल सा हो जाता है
तब याद तुम्हारी आती है…

अब इन यादों के क्या कहने
ये हर पल साथ निभाते हैं
कभी नमी बने पलकों पर तो
कभी होठों पर मुस्काते हैं
राज है क्या, काहे मन अपना
वश में नहीं रह पाता है
अंतर में मीठा दर्द सा उठता
तब याद तुम्हारी आती है…!

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