प्रारब्ध रचाये खेल
खेलती दुनिया सारी
कहीं उजले उजले दिवस
कहीं रातें अंधियारी…
सुख दुख सबको
बांटा उसने एक बराबर
खुशबू जिसको दिया
उसे कांटे भी देकर…
दो पाटों में चलती है
जीवन की सांसें
घनी धूप में चलते हुए
छाया की आसें…
सुख में डूबे रहकर भी
दुख का भय होता
और गमों के साथ ख्वाब
खुशियों का होता…
जिन्दगी हमारे नजरिए
की मोहताज जो होती
देह हमारी खोलबंद
कछुए सी होती……
खोलो मन की आंखें
कुछ मेरे हिस्से की
खोलो मन की आंखें
देखो नजर उठाकर
कण कण व्याप रही सुंदरता
है यह जीवन कितना सुंदर
कुछ मेरे हिस्से की
खुशियां तुम ले लो
और तुम्हारे गम के
कुछ कतरे हम पी लें
आओ मिल बांट के जी लें…
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