Saturday 4 February 2012

मेरी मां


मेरे बाबा की बडी हवेली
कण कण में
व्यापती मेरी मां… 

बाहर दालान से लेकर
पिछवाडे
अमराईयों की छांह तक
चप्पे चप्पे समायी,
चौके के ताखों पर
दीया के आलों पर
द्वार पर चित्रित स्वास्तिक
की रेखों में हू-ब-हू
चित्रित मेरी मां…
 
कभी पीपल में पानी ढालती
कभी पीले धागे बांधती
कभी कुआं पूजती
कभी तुलसी चौरा की
परिक्रमा करती ,
कच्चे आंगन को लीपती
कभी गौ माता की
आरती उतारती
कभी शमी
कभी केले के पेड के नीचे
दीप जलाती मेरी मां…
  
छोटा बडा कोई आ जाए
आंचल ओढ कर आती मां
पास बिठाकर हाल पूछती
पंखा खुद से झलती मां
हम बच्चे उलझाए रखते
पर चौकन्नी रहती मां
मेरे बाबूजी की तो जैसे
छाया बन कर रहती मां…
   
और उस दिन जब
फ़टा कलेजा
नाता तोड चले बाबूजी
बिन पानी की मछली जैसे
तडप रही थी प्यारी मां…
 
आंगन की बेली मुरझाई
घर की गैया खूब रंभाई
भैया ने जब गले लगाया
कुहंक उठी थी मेरी मां
हम सबने
कितना समझाया
होनी की यह रीत बताया
धीरे –धीरे बात समझ कर
आंसू पी गयी मेरी मां…

पर कल जब छोटे भैया ने
कहा
चलो ! मां मेरे साथ
ऐसे फक्क हुआ तब चेहरा
कुछ भी बोल न पायी मां…
     
गुपचुप गठरी बांध रही है
छुपकर आंखें पोंछ रही है
बार-बार इन दीवारों को
सगे जान कर ताक रही है
उसे मोह तुलसी चौरे से
उसे प्यार इस मौलश्री से
नाता उसका गौ माता से
नाता पिंजरे के तोता से
नाता उसका इस घर के,
आंगन के
चप्पे चप्पे से
सब कुछ छोडके जाना होगा
जाने फिर कब आना होगा
वह मन में ही कलप रही है
पर मुख से ना बोल रही है
हाय विधाता !
काहे तूने
रचा धरा पर ऐसी मां…
अनबोलती गुडिया जैसी
चाभी की कठपुतली जैसी
जिसने जैसे जिधर नचाया
उधर नाचती बूढी मां…॥ 


1 comment:

  1. Mujhe bhii maa kii yaad aa gayi, wo mere saath hain,ghar kii yaad unhe bhii aise hi aati hogi.

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