Friday 10 February 2012

गीत ऐसा सुनाऊं

गीत ऐसा सुनाऊं
कि जब गा चुकूं
कोर पलकों की भींगी रहे आपकी
मैं खडी हूं अभी तक
उसी मोड पर
हाथ छूटा तो ये है खता आपकी
 
जो ये कहते थे
काहे पुकारा नहीं
आज आवाज सुन क्यों मुकरने लगे
हमसे रौशन थे उनके ये दोनों जहां 
आज मुडके न जाने किधर चल दिए
वक्त इतनी बदलता है
क्यों करवटें
मैं हूं हैरां ये कैसी अदा आपकी
गीत ऐसा सुनाऊं…………
 
जो ये कहते थे
रिश्ते ये जन्मों के हैं
कोई चाहे मगर टूट सकते नहीं
मन से मन का है नाता
किसी हाल में
हाथ अपने कभी छूट सकते नहीं
मुझको रब से कभी कुछ
नहीं चाहिए
चाहती हूं सुनूं बस सदा आपकी

गीत ऐसा सुनाऊं कि
जब गा चुकूं
कोर पलकों की भींगी रहे आपकी
मैं खडी हूं अभी तक उसी मोड पर
हाथ छूटा तो ये है खता आपकी……

2 comments:

  1. शशिबाला जी,बहुत अच्छी रचना है| इहलौकिकता और पारलौकिकता के द्वंद्व से सृजित यह कविता आपकी सोच को नया आयाम देती है| बधाई !
    सुरेश कुमार, राँची |

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