ऐ वृद्ध बरगद
मेरे घर के पिछवाडे
कब से खडे हो…?
मेरे दादा के दादा भी तुम्हारे
बदन को बांहों में घेरे
सुना है खेला करते थे…
तुम्हारी जटाएं झुक झुक कर
जमीन को छूतीं
और एक नया ही बरगद बन जाता
तुम एक अकेले पूरा बाग ही तो हो
कितनी ऋतुएं संचित हैं
तुम्हारे तन में…?
कितने पतझड कितने बसंत
देखे हैं तुमने…?
कितनी आंधियां कितने झंझावात
सहे हैं तुमने…?
तुम्हारे आस पास बैठकर
घर के कितने फैसले किए गए
तुम सब के साक्षी हो…
हर तीज त्योहार पर
घर की स्त्रियां तुम्हें
पूजती रहीं…
कितने मुखों से तुमने कितनी
आशीषें दी हैं उन्हें…
तुम्हारी शीतल छाया में
कितने बिछौने लगे …
बच्चों के तुम दादाजी
स्त्रियों के सिर पर वरद हस्त
तुम्हारे आशीष के आकांक्षी
हम सभी रहते हैं……
कितने नन्हे पंक्षियों का
बसेरा है तुम्हारी डालियों पर
धूप, वर्षा, शीत सभी में
उन्हें आसरा देते हो
कितना प्यार दुलार से
सहेज समेटकर रखते हो उन्हें
तुम्हारी बाहों पर डाले गए झूले
बचपन की खुशरंग यादें लिए
जेहन में अंकित है
तुम्हारी लटकती जटाओं को
पकडकर भी हम झूलते रहते थे…
एक दिन देखा था हमने
एक बडा सा सांप
तुम्हारे तने में ही कहीं था उसका भी बिल
तुमने उसे भी आसरा दिया
निरीह चिडियों और उनके शत्रु में भी
तुमने फ़र्क नहीं किया
क्या सिखाया पढाया तुमने उस नागराज को
कि वह भी चिडियों का रखवाला ही
बना रहा…।
चील बाज से उनके अंडों
बच्चों की रक्षा करता रहा……
बाबा कहते हैं अब तुम बूढे हो चले हो
थक गई है काया तुम्हारी
अंदर ही अंदर खोखली हो रही
हमने तुम्हारी जडों में
मिट्टी की भराई की
फिर भी उस रात जब
तेज आंधी चली तो हम डर गए
कैसे संभाला तुमने अपने आपको ?
नन्ही नन्ही चिडिया रात भर जागी रहीं
बाबा कहते हैं ये घोंसले जब तक हैं
तुम गिर नहीं सकते
जब तक इनमें से चूजे निकलकर
उड नहीं जाते
तुम्हें कोई आंधी कोई तूफान हिला नहीं सकता
यह कैसा राज है …?
हमारे हौसले क्या इतने बुलंद हो सकते हैं
कि
हर मुसीबत से टकरा सकें…?
शायद हां…
दुनिया का प्राणी मात्र आत्म शक्ति से
लबरेज होता है
बस इरादे नेक होने चाहिये
न कुछ बोलकर भी
बरगद दादा…!
तुम हमारे मार्ग दर्शक हो…
शत शत वर्ष रहो तुम काल चक्र के
पहियों को घूमता हुआ देखते
और अपने रोम रोम पर
इतिहास की रचना करते…।
कि आने वाली पीढियां तुम्हें
देखकर ,छूकर महसूस सकें
बीते कल के स्पंदन को
जीवन को……!!
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