मेरे बाग में खिला
जरुबेरा का एक नन्हा फूल
कितना इंतजार किया मैंने इसका
पौधा जब छोटा सा था
तभी से…
हर दिन देखती
नए नए पत्ते निकलते
इसका कद धीरे धीरे बढता गया
और जब कली आई
तो मेरे भी मन की कली मुस्कुराई
हर रोज देखती जरा सा खुलते
पलकें इसकी…
और जब यह खिला
अलमस्त…
बहुत ही प्यारा…
नन्हे से बच्चे की तरह इसकी
पतली पतली पंखुडियां खुलीं
जैसे पतली अंगुलियां निकाल रहा हो
बालक एक एक कर मुट्ठी से…
बाल मुख पर वैसी ही नाजुक आभा…
बहुत ही रोमांच भरा था
उसका यूं अंगडाई लेकर जागना…
और आहिस्ता आहिस्ता खिलना
जैसे परिचय होता है किसी अजनबी से
रफ़्ता रफ़्ता…
और जब जान पहचान हो जाती है
तब खुल जाता है मन पूरी तरह
मिल जाते हैं दिल आर-पार
वक्त का अंतराल कम नहीं कर पाता
ये जुडाव……
पूरा खिलते ही ये फूल घूम गया
सूरज की तरफ…
आश्चर्य…!
किरणों की चाह लिए खिला है शायद…
चुलबुल…!
पास से गुजरती हूं तो लगता है
झूम कर छूना चाह रहा हो
मन से मन का नाता तो है ही
धक्क से हो गया दिल…
शरमा गई मेरी नजर
कहीं बढकर मेरी लट न संवार दे…!!
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