Thursday 31 July 2014

इसीलिए डरती थी मैं

तब बच्चे छोटे थे
हर घडी देखभाल की
जरूरत होती थी
सुबह जगाना रात को सुलाना
कौर कौर कर खाना भी खिलाना
स्कूल के लिए तैयार करना
कहानियां सुना सुना कर
बहलाना
फुसलाकर कोई काम लेना
और साटकर कलेजे से रखना
जहां भी जाती आजू बाजू समेटकर
लाती ले जाती
फुरसत नहीं मिलती थी
कुछ और भी करने की
कैसे बीता बचपन उनका
कुछ पता ही नहीं चला
मैं उन्हें पढते देखती
ढेर से नम्बर आते तो खुश होती
फिर उन्हें सपने देखते हुए
देखा
और मैं मन ही मन डरने लगी
ममता को स्वार्थ पर हावी कोई भी मां
नहीं करती
मैं ने भी नहीं होने दिया
सपने देखने की छूट दी
प्रयास करने में मदद किया
उडने की इजाजत दी
और चूजों की मां
जैसे पंख निकलते ही उडा देती है
रहने नहीं देती घोंसले में
ताकि सीख ले उडना
सीख ले आसमान में आराम से तैरना
सीख ले जीने के दस्तूर
दाना खुद से चुगना और
घोंसले बनाना
मैंने भी भेज दिया
जिसने जहां चाहा
और रह गयी अकेली
मेरे मन का दर्द
हजारों लाखों मां के
मन के दर्द से एकाकार हो गया
कोई पूछकर देखे
मां पर क्या बीतती है
जब वह कभी उनके पसंदीदा व्यंजन बनाती है
कौर गले के पार नहीं उतरते
आंखें भींग जाती हैं
कलेजा जैसे कोई मुट्ठी में लेकर मसल दे
तब लगता है जब उनके अनमने होने
या बीमार होने की खबर मिलती है
तडप कर रह जाती हूं
इसीलिये डरती थी मैं……………
और अब बदल गये उत्सव के मायने
बदल गईं वक्त बेवक्त की पाबंदियां
बदल गये खुश होने के दस्तूर
कि हर दिन त्योहार है
जब आते हैं बच्चे
हर सुबह होली हर रात दीवाली
जब साथ रहते हैं बच्चे
बसंत की आभा
सावन की हरियाली
फूलों की महक सब कुछ बसते हैं
अपने ही मन में
सब कुछ मिल जाता है अपने ही आंगन में……
जब साथ रहते हैं सब
भरा भरा घर
महका महका हर कोना
हल्के हल्के खुशनुमा दिन रात
फिर
सबकुछ बदल जाता है
एकबारगी खाली हो जाता है पूरा घर
पसर जाता है सन्नाटा
उनके जाते ही
इसीलिए डरती थी मैं…………।


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