Tuesday 22 July 2014

सात समुन्दर पार से

सात समुन्दर पार से
गुडियों के बाजार से…
कानों में गाने के बोल गूंज रहे
और पनीली आंखें
शून्य में तुम्हें ढूंढ रहीं
कहां खो गए तुम
बाबा !
चार पंक्तियों की
कविता लिखकर चारों दिशाओं में
घूमती फिरती हूं
किसे दिखाऊं
किसे सुनाऊं
कौन कहेगा सुनते ही
कैसे लिखी…
यह तो मेरे गांव की कहानी है
तुम्हें कहां से मिली …?

तुम्हारी उंगली थामकर
चलने वाली आज
अतीव व्यस्तता के बावजूद
हर तरफ
खाली खाली महसूस करती है

तुम्हारा खाली कमरा
तुम्हारी खाली कुर्सी
दीवार पर टंगी
तुम्हारी हंसती हुई तस्वीर
मन को कचोट कर रख देती है

काश मैं तुम्हारी बेटी न होकर
बेटा होती
तुम मुझे विदा न करते
यूं मुझे खुद से जुदा न करते

बचपन की हजारों यादें
मुझे गाहे बगाहे
रुलाया करती हैं
मेरे ऊन के गोले सुलझाना
मेरे याद किए हुए पाठ को सुनना
सुबह सबेरे मुझे जगाये जाने पर
अम्मा से रोज रोज उलझना

बाबा
अब तो रोज ही जागती है तुम्हारी दुलारी
मुंह अंधेरे
उनींदी रहे या अलसायी
कौन देखता है

एक तस्वीर मांग कर अम्मा से
लायी हूं
छोटी सी थी मैं
तुम्हारी उंगली दोनों हथेलियों से
कस कर थामे
डरी सहमी सी
शायद जानती थी तभी
कि छुडा लोगे हाथ मेरा
चले जाओगे दूर कहीं
सात आसमान  के पार

फिर बस सपनों में आने के लिए……।

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