Tuesday 22 July 2014

घरौंदा

छोटी सी थी
तब मिट्टी का घरौंदा
बनाया करती थी
तिनकों से सजाकर ही
गर्व से निहारा करती थी
कितना सुख मिलता था
उस कच्ची मिट्टी के घरौंदे को
देख देख कर……

अब जो बनाया है
वह भी तो घरौंदा ही है
मिट्टी का न सही
ईंट बालू सीमेंट का ही सही
मार्बल और ग्रेनाइट का ही सही

सजाया भी है
रंग रोगन से
झाड फानूस से
तरह तरह के चित्र नक्काशियों से
क्या फर्क पडता है

हां फर्क आ गया है
इसे देखकर मिलने वाले सुख में
घरौंदे के मुकाबले सुख छोटा
लगने लगा
संतोष की वो चरम अनुभूति
नहीं मिलती
खुशी की वो किलकारियां नहीं निकलतीं

हम तो वही हैं
घरौंदा भी कमोबेश वही है
फिर फर्क कहां है
शायद हम ही भूल गये
छोटी छोटी बातों में खुश होना
किलकना
शायद हम ही भूल गये
जीना
जीने के कायदे…………


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