Thursday 19 January 2012

संगीत के स्वर


कोयलिया बोले अमवा की डाल पर…
कानों में रस घोलते-से
राग मालकौंस के स्वर,
मैं चौंक कर उठी
पलकों को धीरे-धीरे खोला
कहीं सपना हो और टूट जाए तो…
प्रात: काल का समय
राग भैरवी गाए जाने का समय
पर रियाज के लिए समय की
कोई बंदिश नहीं
कभी भी किसी भी वक्त
किया जा सकता…
ऐसे गायन तो एक विधा है
एक साधना
अपने अंतर में प्रवेश की
अपने अंत:करण की शुद्धि की…

फ्लैटों की दिनचर्या और
कैदखाने –सी जिन्दगी
एक चौकोर घेरे में बंद
क्या रात क्या दिन
क्या सुबह क्या शाम
मैं बालकोनी में निकल आई
चलो ! खुश होने का एक
नायाब बहाना मिला…

आवाज सामने वाले मकान से
आ रही थी
कोई छोटी बच्ची बडे ही मधुर कंठ से
गा रही थी…
याद आ गईं अमराईयां
मंजरियां ,पुरवाईयां
और पंचम स्वर की रानी
कोयल…
मैं छत पर चली आई
आस-पास नजर दौडाया
हैं न !आम का छोटा-सा बगीचा है पास में
तो ,कोयल की कूक भी मिलेगी
सुनने को…

और एक दिन
जब उस बच्ची ने
सुबह-सुबह राग भैरवी छेड दी
तो मेरा मन विकल हो उठा
यह मेरी पसंदीदा बंदिश है
श्याम संग मोरे लागे नयना……
मेरी उंगलियां हवा में ही थिरक उठीं
लडकपन याद आ गया

सुर लहरियां और
उनमें डूबते उतराते
झंकृत होते मन के तार-तार
बदली भरी रातों में गाए जाने वाले
राग…
पनघट के लिए अलग बंदिश
रुनझुन पायल बिछुओं के लिए
अलग…
होली,दीपावली पर्व त्योहारों
के लिए अलग अलग स्वर संयोजन

चांदनी रातों के अभिनन्दन
का अवसर हो
या कमल नयन की वन्दना करनी हो
षडज से लेकर निषाद तक
मोर,पपीहा,
बकरा,बगुला,कोयल,मेढक और
हाथी की अवाज से लिए गए
सातों स्वर
शुद्ध,कोमल और तीव्र
मिलकर हजारों राग रागिनियों की
रचना करते हैं जिनकी साधना
तीनों लोक चारों दिशाओं
सातों आसमान तक
गूंज उठती है
यह साधना मन को
पवित्र तो करती ही है
भक्ति के मार्ग भी प्रशस्त करती है
 
सुना है द्वारिकाधीश के जागरण के समय
राग भैरव गाया जाता था
जिनकी बंदिश आज भी
किसी को जगाने के लिए
गाई जाती हैं
जागो मोहन प्यारे…

बसंत का आगमन हो रहा
सुबह का वक्त है
कानों में कोयल की कूक
आ रही…
सामने के मकान से स्वर आ रहे
लगतार वातावरण में 
संगीत की मिठास घोल रहे
आने जाने वाले राहगीर
एकबार पलटकर देख रहे
ये कौन गा रहा
लागत मीठी मीठी बोलिया
बोलत अमवा की डाली
कोयलिया………………॥

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