ठन जाती है अक्सर
दर्पण से मेरी रार
ठन जाती है…
यह अबोलता तकरार
कोई सुने न सुने
मैं सुनती हूं…
और लाख सर झटक कर चलती बनूं
गुनती भी हूं…
बात होती ही ऐसी है
बन ठन कर जाती हूं
निहारने अपने आप को
पर नजरें मिलते ही
मुस्कुरा देती है छवि मेरी ही
दर्पण से झांकता प्रतिबिम्ब अपना ही
जैसे कह रहा हो
क्या देखती हो…?
क्या देखना चाहती हो…??
यह जो भारी लिबास
रंग बिरंगा ओढ रखा है उसे
या यह जो तरह तरह के सिंगार
रचा रखा है उसे…
ध्यान से देखो
दीख जाएगा तुम्हें झलकता सफ़ेद बाल
चेहरे पर उभरती हुई झुर्रियां
दिन दिन इनकी संख्या बढती ही जाएगी
फीके पडते जाएंगे रंग
इन भारी भरकम लिबास के ,
और चमक घटती जाएगी
इन सिंगार प्रसाधनों की
और ये झुर्रियां ,ये सफ़ेद बाल
कुछ कहते भी हैं
ध्यान से सुनो
कि अपने अंतर में भी झांको
देखो तो
कितनी कितनी खरोचें
कितनी कितनी खरोचें
कितने घाव ,कितने दाग धब्बे
अर्ज लिए तुमने
उम्र के इस पडाव तक आते आते
कहां रहा मन उतना निर्मल
कहां रहे तुम्हारे विचार साफ सुथरे
झूठे मान अपमान ने धो डाली है
चमक सारी
गर्व अहंकार ने दे डाले कितने दाग धब्बे
बेवजह के झगडे फ़सादों में
कितना और क्या क्या
जाया हुआ तुम्हारा
यह भी सोचो…
कैसे छुडाओगी इन्हें
कितना भी रंग लो काया अपनी
ओढ लो शाल दुशाले
छुप नहीं पाएंगे ये
गाहे बगाहे टीसेंगे ही
रातों को ,तन्हाईयों में
जब कभी करोगी अंतर्यात्रा
कोशिश करोगी ढूंढूने की अपने आप को
डूबोगी अपने ही भीतर के अथाह में
दीख जाएंगे सब के सब
तब कितनी भी ग्लानि हो
कितना भी अफसोस
कुछ नहीं सुधरेगा…।
कुछ नहीं सुधरेगा…।
धाराप्रवाह बोलता है प्रतिबिम्ब मेरा
घबरा जाता है मन
झुक जाती है निगाह
चुराने लगती हूं नजर और
हट जाती हूं दर्पण के सामने से
क्योंकि सच ही तो बोलता है
यह शीशे का नन्हा टुकडा
झूठ नही बोलता है…!!
झूठ नही बोलता है…!!
Excellent,95/100.
ReplyDeleteदर्पण झूठ नहीं बोलता , ये तो सबको पता है.
ReplyDeleteपर इसमें कहां अपनी खता है?
है मंजिलों पे धुन्ध , दीखता कुछ नहीं वहां...
कौन जाने सत्य का है रास्ता कहाँ?
धन्यवाद्॥बहुत बहुत धन्यवाद्॥
ReplyDelete