Friday 27 April 2012

देखो तो


देखो तो
कैसा रूप खिला है
कैसा निखार पाया है
मेरी कल्पना ने.....
मैंने जिस दीवानगी के ख्वाब देखे
चाहत के जिस अंतहीन
स्वरूप की कल्पना की
और अपनी कविता में ढाला
वही तो आया है सामने
रूप धरकर.....

किरणों की रंगत
फूलों की महक लिए
मदभरे नयन ,
मस्तानी चाल
बावरेपन की अद्भुत मिसाल......

कभी तो कहता है
मेरे गले से झूलकर, कि
मेरा वश चले तो
सूरज को भी देखने न दूं तुम्हें
हवा को भी छूने न दूं
तेरा बदन…
तू बस मेरी नजरों के
दायरे में रहे
मेरी बांहों के घेरे में हमेशा हमेशा…

कभी आंखों में आंखें डालकर
पूछता है
कौन हो तुम मेरे
क्या हो मेरे लिए…??
सखा हो या उससे भी बढकर
प्यार हो मेरा
ना ! उससे भी बढकर
शुभचिन्तक मेरे
कभी मार्गदर्शक
कभी कुछ और ही…
जन्म जन्मांतर के साथी हो
हां ,शायद यही सच है…

कितने ही रूप हैं तुम्हारे
हर रूप में समाहित हूं मैं भी
कभी आंचल थामे
कभी उंगली पकडे
ठुनकता जिद्द करता
तेरे साये साये चलता…
रत्ती रत्ती घुलता तुझमें
कतरा कतरा पिघलकर
मिलता तेरे वजूद में……
आह !
ये सवालात…!
झकझोर देते हैं मुझे
कहां तो मैं उलझी रहती थी
इन्हीं प्रश्नों के जाल में
कि कौन है वह
क्या रिश्ता है उससे
किस जन्म का…
जो खींचता रहता है
मुझे सोते जागते
बसा रहता है मेरे चेतन अवचेतन में
रचा हुआ है मेरी हथेलियों की
लाली में
सांसों की खुमारी में
और पुकारता रहता है
संझा और प्रभाती के स्वरों में
लगातार ,बिना रुके
बिना सामने आए…
कभी तडप बनकर
कभी कसक बनकर
कभी प्यार बनकर…

आर –पार दीखने लगा है अब
वह मुझे
चांदनी सा धवल ,निर्मल
मेरी अपनी ही आत्मा
के हू-ब-हू प्रतिबिम्ब सा……।

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