Friday 27 April 2012

युगों युगों से


लम्बा अरसा बीत गया
पर
कुछ भी नहीं बदला
न तो वह पुल
न उस पर से गुजरने वालों का
दिन दिन बढ्ता सैलाब ही
वही घर
वही बरामदा
वही चहारदीवारी को छूकर गुजरती
पतली सी गली……

शाम अब भी वैसी ही
धीरे-धीरे शांत होते
कोलाहल से भरी
और घर लौटते पंछियों की
लम्बी कतार आसमान
के आर-पार…
वक्त भी वही होगा
मैं दौड्कर बरामदे में आई
नहीं जानती अब तुम कहां हो
घर लौटते हुए तुम्हारी गाडी
इस गली से होकर
गुजरेगी भी या नहीं……

पहले की तरह
सामने वाली खिड्की का शीशा
धीरे-धीरे उतरेगा भी
या नहीं
और ड्राइविंग सीट पर
बैठे हुए तुम
जरा सा घूमकर
पल भर इधर देखोगे भी या नहीं
नहीं जानती
तुम्हारी बात…
    
पर अपने मन का हाल तो
भली भांति जानती हूं
धड्कन की वही
तेज रफ्तार
सब काम छोड़कर भागते हुए आना
और पल भर को ही सही
निगाहों के मिलने का
बेसब्री से इन्तजार करना…
  
हर आने जाने वाली
सवारी पर उड्ती निगाह डालती
मन ही मन में सोचती हूं
पहचान तो लोगे न तुम !
 
तुम्हारी गाडी की
दूर से आती हुई आवाज तक को
पहचानती थी मैं
अब भी पहचान तो लूंगी न !
कि तभी देखा
धीमी होती हुई रफ्तार
रुकती हुई गाडी
और धीरे-धीरे नीचे
उतरता हुआ शीशा
सांस रुक सी गैइ मेरी
जहां के तहां
जकड से गए पांव
पलकें भूल गईं झपकना भी…

और उस एक क्षण को
जैसे टकरा गए हों
ग्रह नक्षत्र सारे
मिल गए हों धरती और आसमान
क्षितिज की विशालता का
एहसास…
और गहरे इत्मीनान का
अनुभव……
कि तुमने भी किया है
इंतजार,अनवरत…

हर दिन इस गली से गुजरते
धीमी होती होगी गति
हर दिन उतरता होगा शीशा
और हर दिन निगाहें
ढूंढती होंगी मुझे…

मैंने जानना चाहा था
कि क्या करोगे तुम
अगर ऐसे ही
किसी दिन रोककर रास्ता तुम्हारा
खडी हो गई बाहें फैलाए
ले तो जाओगे न
मुझे कल्पनाओं के अशेष
संसार में……
मैंने देखा तुम्हें
उतरते,
धीमे कदमों से
अपनी तरफ आते…
न जाने कौन सी प्रेरणा
कौन सी इच्छाशक्ति के
वशीभूत मैं
बावरी……
दौड पडी बाहें फैलाए
लोक लाज की
परवाह किए बगैर
समेट लिया तुमने आगोश में
बिना एक पल भी गंवाए…

और खत्म हुआ
इंतजार
जो करते रहे हम
पलकें बिछाए
युगों युगों से………।


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